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शनिवार, 29 मई 2010

जात-पांत

जनगणना से जात हटाओ 
आरक्षण की सीमा उच्चतम न्यायालय ने पहले ही बांध रखी है| 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण किसी भी हालत में नहीं दिया जा सकता| यदि आरक्षितों की संख्या 1931 के मुकाबले अब बढ़ गई हो तो भी उनको कोई फायदा नहीं मिलेगा और कुल जनसंख्या के अनुपात में अगर वह घट गई हो तो हमारे देश के नेताओं में इतनी हिम्मत नहीं कि आरक्षण के प्रतिशत को वे घटवा सकें| इसलिए प्रश्न उठता है कि जनगणना में जाति को घसीट कर लाने से किसको क्या फायदा होनेवाला है?

तर्क यह दिया जाता है कि अगर हम दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को आरक्षण देते रहना चाहते हैं तो जन-गणना में जाति का हिसाब तो रखना ही होगा| उसके बिना सही आरक्षण की व्यवस्था कैसे बनेगी ? हॉं, यह हो सकता है कि जिन्हें आरक्षण नहीं देना है, उन सवर्णों से उनकी जात न पूछी जाए| लेकिन इस देश में मेरे जैसे भी कई लोग हैं, जो कहते हैं कि मेरी जात सिर्फ हिंदुस्तानी है और जो जन्म के आधार पर दिए जानेवाले हर आरक्षण के घोर विरोधी हैं| उनकी मान्यता है कि जन्म यानी जाति के आधार पर दिया जानेवाला आरक्षण न केवल राष्ट्र-विरोधी है बल्कि जिन्हें वह दिया जाता है, उन व्यक्तियों और जातियों के लिए भी विनाशकारी है| इसीलिए जन-गणना में से जाति को बिल्कुल उड़ा दिया जाना चाहिए| यदि 2010 की इस जनगणना में जाति को जोड़ा जाएगा तो वह बिल्कुल निरर्थक होगा क्योंकि आरक्षण की सीमा उच्चतम न्यायालय ने पहले ही बांध रखी है| 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण किसी भी हालत में नहीं दिया जा सकता| यदि आरक्षितों की संख्या 1931 के मुकाबले अब बढ़ गई हो तो भी उनको कोई फायदा नहीं मिलेगा और कुल जनसंख्या के अनुपात में अगर वह घट गई हो तो हमारे देश के नेताओं में इतनी हिम्मत नहीं कि आरक्षण के प्रतिशत को वे घटवा सकें| इसलिए प्रश्न उठता है कि जनगणना में जाति को घसीट कर लाने से किसको क्या फायदा होनेवाला है ?

जाति पर आधारित आरक्षण ने गरीबों और वंचितों का सबसे अधिक नुकसान किया है| आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को आरक्षण से क्या मिलता है ? सिर्फ नौकरियाँ ! 5-7 हजार लोगों के मुंह में सरकारी नौकरियों की चूसनी (लॉलीपॉप) रखकर देश के 60 करोड़ से ज्यादा वंचितों के मुंह पर ताले जड़ दिए गए हैं| उनके विशेष अवसर, विशेष सुविधा और विशेष सहायता के द्वार बंद कर दिए गए हैं| उन्हें खोलना बहुत जरूरी है| क्या 5 हजार रेवडि़याँ बांट देने से 60-70 करोड़ वंचितों के पेट भर जाएंगे? आरक्षण न सिर्फ उनके पेट पर लात मारता है बल्कि उनके सम्मान को भी चोट पहुंचाता है| जो अपनी योग्यता से भी चुनकर आते हैं, उनके बारे में भी मान लिया जाता है कि वे आरक्षण (कोटे) के चोर दरवाज़े से घुस आए हैं| हमारे नेताओं ने जाति को आरक्षण का सबसे सरल आधार मान लिया था लेकिन अब वह सबसे जटिल आधार बन गया है| अभी आरक्षण का आधार बहुत संकरा है, उसे बहुत चौड़ा करना जरूरी है| जाति का आधार सिर्फ हिन्दुओं पर लागू होता है| इसके कारण हमारे देश के मुसलमानों और ईसाइयों में जो वंचित लोग हैं, उनको भी बड़ा नुकसान हुआ है| जिसे जरूरत थी, उसे रोटी नहीं मिली और जिसके पास जात थी, वह मलाई ले उड़ा|


जन-गणना में जाति का समावेश किसने किया, कब से किया, क्यों किया, क्या यह हमें पता है ? यह अंग्रेज ने किया, 1871 में किया और इसलिए किया कि हिंदुस्तान को लगातार तोड़े रखा जा सके| 1857 की क्रांति ने भारत में जो राष्ट्रवादी एकता पैदा की थी, उसकी काट का यह सर्वश्रेष्ठ उपाय था कि भारत के लोगों को जातियों, मजहबों और भाषाओं में बांट दो| मज़हबों और भाषाओं की बात कभी और करेंगे, फिलहाल जाति की बात लें| अंग्रेज के आने के पहले भारत में जाति का कितना महत्व था ? क्या जाति का निर्णय जन्म से होता था ? यदि ऐसा होता तो दो सौ साल पहले तक के नामों में कोई जातिसूचक उपनाम या 'सरनेम' क्यों नहीं मिलते ? राम, कृष्ण, शिव, विष्णु, महेश, बुद्घ, महावीर किसी के भी नाम के बाद शर्मा, वर्मा, सिंह या गुप्ता क्यों नहीं लगता ? कालिदास, कौटिल्य, बाणभट्रट, भवभूति और सूर, तुलसी, केशव, कबीर, बिहारी, भूषण आदि सिर्फ अपना नाम क्यों लिखते रहे ? इनके जातिगत उपनामों का क्या हुआ ? वर्णाश्रम धर्म का भ्रष्ट होना कुछ सदियों पहले शुरू जरूर हो गया था लेकिन उसमें जातियों की सामूहिक राजनीतिक चेतना का ज़हर अंग्रेजों ने ही घोला| अंग्रेजों के इस ज़हर को हम अब भी क्यों पीते रहना चाहते हैं ? मज़हब के ज़हर ने 1947 में देश तोड़ा, भाषाओं का जहर 1964-65 में कंठ तक आ पहुंचा था और अब जातियों का ज़हर 21 वीं सदी के भारत को नष्ट करके रहेगा| जन-गणना में जाति की गिनती इस दिशा में बढ़नेवाला पहला कदम है| इसीलिए हमारे संविधान निर्माताओं और आजाद भारत की पहली सरकार ने जनगणना में से जाति को बिल्कुल हटा दिया था|1931 में आखिर अंग्रेज 'सेंसस कमिश्नर' जे.एच. हट्टन ने जनगणना में जाति को घसीटने का विरोध क्यों किया था ? वे कोरे अफसर नहीं थे| वे प्रसिद्घ नृतत्वशास्त्री भी थे| उन्होंने बताया कि हर प्रांत में हजारों-लाखों लोग अपनी फर्जी जातियॉं लिखवा देते हैं ताकि उनकी जातीय हैसियत ऊँची हो जाए| कुछ जातियों के बारे में ऐसा भी है कि एक प्रांत में वे वैश्य है तो दूसरे प्रांत में शूद्र| एक प्रांत में वे स्पृश्य हैं तो दूसरे प्रांत में अस्पृश्य ! हर जाति में दर्जनों से लेकर सैकड़ों उप-जातियॉं हैं और उनमें भी ऊँच-नीच का झमेला है| 58 प्रतिशत जातियॉ तो ऐसी हैं, जिनमें 1000 से ज्यादा लोग ही नहीं हैं| उन्हें ब्राह्रमण कहें कि शूद्र, अगड़ा कहें कि पिछड़ा, स्पृश्य कहें कि अस्पृश्य - कुछ पता नहीं| आज यह स्थिति पहले से भी बदतर हो गई है, क्योंकि अब जाति के नाम पर नौकरियॉं, संसदीय सीटें, मंत्री और मुख्यमंत्री पद, नेतागीरी और सामाजिक वर्चस्व आदि आसानी से हथियाएं जा सकते हैं| लालच बुरी बलाय ! लोग लालच में फंसकर अपनी जात बदलने में भी संकोच नहीं करते| सिर्फ गूजर ही नहीं हैं, जो 'अति पिछड़े' से 'अनुसूचित' बनने के लिए लार टपका रहे हैं, उनके पहले 1921 और 1931 की जन-गणना में अनेक राजपूतों ने खुद को ब्राह्रमण, वैश्यों ने राजपूत और कुछ शूद्रों ने अपने आप को वैश्य और ब्राह्रमण लिखवा दिया| जिन स्त्री और पुरूषों ने अंतरजातीय विवाह किया है, उनकी संतानें अपनी जात क्या लिखेगी ? जनगणना करने वाले कर्मचारियों के पास किसी की भी जात की जाँच-परख करने का कोई पैमाना नहीं है| हर व्यक्ति अपनी जात जो भी लिखाएगा, उसे वही लिखनी पड़ेगी| वह कानूनी प्रमाण भी बनेगी| कोई आश्चर्य नहीं कि जब आरक्षणवाले आज़ाद भारत में कुछ ब्राह्रमण अपने आप को दलित लिखवाना पसंद करें बिल्कुल वैसे ही जैसे कि जिन दलितों ने अपने आप को बौद्घ लिखवाया था, आरक्षण से वंचित हो जाने के डर से उन्होंने अपने आप को दुबारा दलित लिखवा दिया| यह बीमारी अब मुसलमानों और ईसाइयों में भी फैल सकती है| आरक्षण के लालच में फंसकर वे इस्लाम और ईसाइयत के सिद्घांतों की धज्जियां उड़ाने पर उतारू हो सकते हैं | जाति की शराब राष्ट्र और मज़हब से भी ज्यादा नशीली सिद्घ हो सकती है|

आश्चर्य है कि जिस कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद अंग्रेजों ने जन-गणना से जाति को हटा दिया था और जिस सिद्घांत पर आज़ाद भारत में अभी तक अमल हो रहा था, उसी सिद्घांत को कांग्रेस ने सिर के बल खड़ा कर दिया है| कांग्रेस जैसी महान पार्टी का कैसा दुर्भाग्य है कि आज उसके पास न तो इतना सक्षम नेतृत्व है और न ही इतनी शक्ति कि वह इस राष्ट्रभंजक मांग को रद्द कर दे| उसे अपनी सरकार चलाने के लिए तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं|
आश्चर्य है कि जिस कांग्रेस के विरोध के कारण 1931 के बाद अंग्रेजों ने जन-गणना से जाति को हटा दिया था और जिस सिद्घांत पर आज़ाद भारत में अभी तक अमल हो रहा था, उसी सिद्घांत को कांग्रेस ने सिर के बल खड़ा कर दिया है| कांग्रेस जैसी महान पार्टी का कैसा दुर्भाग्य है कि आज उसके पास न तो इतना सक्षम नेतृत्व है और न ही इतनी शक्ति कि वह इस राष्ट्रभंजक मांग को रद्द कर दे| उसे अपनी सरकार चलाने के लिए तरह-तरह के समझौते करने पड़ते हैं| भाजपा ने अपने बौद्घिक दिग्भ्रम के ऐसे अकाट्य प्रमाण पिछले दिनों पेश किए हैं कि जाति के सवाल पर वह कोई राष्ट्रवादी स्वर कैसे उठाएगी| आश्चर्य तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मौन पर है, जो हिंदुत्व की ध्वजा उठाए हुए है लेकिन हिंदुत्व को ध्वस्त करनेवाले जातिवाद के विरूद्घ वह खड़गहस्त होने को तैयार नहीं है| समझ मे नहीं आता कि वर्ग चेतना की अलमबरदार कम्युनिस्ट पार्टियों को हुआ क्या है ? उन्हें लकवा क्यों मार गया है ? सबसे बड़ी विडंबना हमारे तथाकथित समाजवादियों की है| कार्ल मार्क्स कहा करते थे कि मेरा गुरू हीगल सिर के बल खड़ा था| मैंने उसे पाव के बल खड़ा कर दिया है लेकिन जातिवाद का सहारा लेकर लोहिया के चेलों ने लोहियाजी को सिर के बल खड़ा कर दिया है| लोहियाजी कहते थे, जात तोड़ो| उनके चेले कहते हैं, जात जोड़ो| नहीं जोड़ेंगे तो कुर्सी कैसे जुड़ेगी ? लोहिया ने पिछड़ों को आगे बढ़ाने की बात इसीलिए कही थी कि समता लाओ और समता से जात तोड़ो| रोटी-बेटी के संबंध खोलो| जन-गणना में जात गिनाने से जात टूटेगी या मजबूत होगी ? जो अभी अपनी जात गिनाएंगे, वे फिर अपनी जात दिखाएंगे| कुर्सियों की नई बंदर-बांट का महाभारत शुरू हो जाएगा| जातीय ईर्ष्या का समुद्र फट पड़ेगा| आजाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका है कि जब सारे राजनीतिक दल एक तरफ हैं और भारत की जनता दूसरी तरफ ! इस मुद्दे पर भारत के करोड़ों नागरिक जब तक बगावत की मुद्रा धारण नहीं करेंगे, हमारे नेता निहित स्वार्थों में डूबे रहेंगे| जो लोग अपने व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में जाति के जाल में फंसे रहना चाहते हैं, फंसे रहें लेकिन राष्ट्र के राजनीतिक जीवन में से जाति का पूर्ण बहिष्कार होना चाहिए|

दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों, ग्रामीणों, गरीबों को आगे बढ़ाने का अब एक ही तरीका है| सिर्फ शिक्षा में आरक्षण हो, पहली से 10 वीं कक्षा तक| आरक्षण का आधार सिर्फ आर्थिक हो| जन्म नहीं, कर्म ! आरक्षण याने सिर्फ शिक्षा ही नहीं, भोजन, वस्त्र्, आवास और चिकित्सा भी मुफ्त हो| प्रत्येक व्यक्ति शिक्षा के माध्यम से सक्षम बने और जीवन में जो कुछ भी प्राप्त करे, वह अपने दम-खम से प्राप्त करे| यह विशेष अवसर के सिद्घांत का सर्वश्रेष्ठ अमल है| इस व्यवस्था में जिसको जरूरत है, वह छूटेगा नहीं और जिसको जरूरत नहीं है, वह घुस नहीं पाएगा, उसकी जात चाहे जो हो| जात पर आधरित नौकरियों का आरक्षण चाहे तो अभी कुछ साल और चला लें लेकिन उसे समाप्त तो करना ही है| जात घटेगी तो देश बढ़ेगा| वोट-बैंक की राजनीति को बेअसर करने का एक महत्वपूर्ण तरीका यह भी है कि देश में मतदान को अनिवार्य बना दिया जाए| जन-गणना से जाति को हटाना काफी नहीं है, जातिसूचक नामों और उपनामों को हटाना भी जरूरी है| जातिसूचक नाम लिखनेवालों के चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध होना चाहिए| उन्हें सरकारी पदों और नौकरियों से वंचित किया जाना चाहिए| यदि मजबूर सरकार के गणक लोगों से उनकी जाति पूछें तो वे या तो मौन रहें या लिखवाएं– ‘मैं हिंदुस्तानी हूं|’ हिंदुस्तानी के अलावा मेरी कोई जात नहीं है|
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक 'जनगणना से जात हटाओ' आंदोलन के सूत्रधार हैं|)
dr.vaidik@gmail.com
ए-19 प्रेस एन्क्लेव नई दिल्ली-110017 फोन-2686-7700, 26517295,  मो.-98&91711947
कार्यालय: 13 बाराखंभा रोड, नई दिल्ली-110001

प्रस्तुति: टी.सी. चन्दर

शुक्रवार, 21 मई 2010

प्रशंसा

ठीक नहीं प्रशंसा में कंजूसी
प्रशंसा के अनेक दूरगामी परिणाम भी प्राप्त होते हैं। अपने आसपास थोड़ा ध्यान दें तो हम पाते हैं कि अनेक लोग पूरी निष्ठा, ईमानदारी, बहादुरी, कुशलता, सूझबूझ, कल्पनाशीलता, रचनात्मकता आदि के साथ सोंपा गया कार्य कर रहे हैं। परन्तु प्रायः उनकी प्रशंसा नहीं की जाती। हां, यदि काम करते समय यदि कोई छोटी-सी भूल हो जाए तो दसके लिए तुरन्त टोक दिया जाता है या अन्य हल्की या कठोर प्रतिक्रिया सामने आ जाती है।
मनोवैज्ञानिक और शिक्षाविद मानते हैं कि सच्ची प्रशंसा, उचित सम्मान और प्रोत्साहन हमारी नयी पीढ़ी के लिए ही नहीं अन्य लोगों के लिए भी प्रगति तथा हित की दृष्टि से उपयोगी है। अध्यापक, अभिभावक, नियोक्ता आदि भी इस बात से अनभिज्ञ नहीं हैं। प्रशंसा और प्रोत्साहन के अभाव ने अनगिनत प्रतिभाओं को कुंठित किया है। प्रशंसा करते समय उचित सावधानी और अपने विवेक का उपयोग करना औरों के लिए हितकर होगा। अपने किसी स्वार्थ के लिए किसी व्यक्ति की झूठी प्रशंसा करना एक घटिया काम है। प्रशंसा वास्तविक और सच्ची होनी चाहिए।

हमारे घर-परिवार, विभिन्न कार्य स्थलों, विद्यालयों आदि यानी लगभग हर जगह प्रशंसा करने में बहुत ज्यादा कंजूसी बरती जाती है। यह अच्छी बात नहीं है। प्रशंसा करने में कुछ अतिरिक्त खर्च नहीं होता जबकि अनेक दृष्टियों से यह हमारे और औरों के लिए लाभदायक ही सिद्ध होती है। प्रसंशा के अनेक दूरगामी परिणाम भी प्राप्त होते हैं। अपने आसपास थोड़ा ध्यान दें तो हम पाते हैं कि अनेक लोग पूरी निष्ठा, ईमानदारी, बहादुरी, कुशलता, सूझबूझ, कल्पनाशीलता, रचनात्मकता आदि के साथ सोंपा गया कार्य कर रहे हैं। परन्तु प्रायः उनकी प्रशंसा नहीं की जाती। हां, काम करते समय उनसे यदि कोई छोटी-सी भूल हो जाए तो उसके लिए तुरन्त टोक दिया जाता है या अन्य हल्की या कठोर प्रतिक्रिया सामने आ जाती है। सम्भव है आपने भी एकाधिक बार ऐसी स्थितियों का सामना किया हो। वस्तुतः ऐसा करना ठीक नहीं है। अच्छे कार्य या व्यवहार के लिए प्रशंसा करनी ही चाहिए।



ऐसा भी होता है कि अनेक बार संघर्ष और प्रयास करने पर भी सफलता नहीं मिलती, ऐसे में सम्बन्धित व्यक्ति की यदि प्रशंसा न भी की जाए तो उसका उत्साह बढ़ाते हुए फिर प्रयास करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इतिहास ऐसे लोगों के कार्यों से भरा पड़ा है जिन्होंने जीवनभर खूब काम किया। उन्हें तब पर्याप्त महत्व नहीं दिया गया। उनके मरने के बाद लोगों ने उनकी जमकर प्रशंसा की और उन्हें महान बना दिया। ऐसे अनेक वैज्ञानिक, संगीतकार, चित्रकार, गायक, कवि, लेखक आदि अपनी मृत्यु के उपरान्त ही प्रशंसा पा सके और विश्वप्रसिद्ध हुए। उनके कार्यों और उपलब्धियों को लोगों ने मुक्तकण्ठ से सराहा और उनकी सफलताओं से नयी पीढ़ी को प्ररित होने के लिए कहा। हमारे आसपास भी ऐसे प्रतिभावान युवाओं की कमी नहीं है जो बहुत कुछ करना चाहते है और वे सक्षम भी हैं। पर लोगों के द्वारा की गयी आलोचना, उपहास, ईर्ष्या आदि उनकी गति में बाधा बन जाते है।

जहां हम दूसरों की प्रशंसा करने और उन्हें प्रेरित करने में हिचकिचाते हैं वहीं उनकी निन्दा करने, टांग खींचने, आलोचना करने, कोसने, हतोत्साहित करने, टीकाटिप्पणी करने आदि में कभी पीछे नहीं रहते। इस काम के लिए प्रायः हमारे पास समय की कमी भी नहीं होती। हम किसी व्यक्ति के किसी कार्य या व्यवहार के बारे में नापसन्द होने पर जिस तत्परता से अप्रसन्नता के साथ प्रतिक्रिया देते हैं तो बड़ा ही स्पष्ट ढंग अपनाते हैं। सोचिए, उतनी ही तत्परता से हम सकारात्मक भूमिका निभाएं तो परिणाम निःसन्देह बेहद सुखद होंगे। हमें स्वयं अपने भीतर पश्चाताप की बजाय अनूठे सुख की अनुभूति होगी। सो मुसकराकर देखिए, औरों का समर्थन और प्रशंसा कीजिए और जीवन को और सुन्दर बनाइए। अपने मित्रों, सहयोगियों, सहकर्मियों सहित सभी की आवश्यकतानुसार उचित अवसर पर प्रशंसा कीजिए। क्या आप स्वयं यह जानना नहीं चाहते कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं? ठीक इसी प्रकार और लोग भी यह जानना चाहते हैं कि आप उनके बारे में क्या सोचते हैं? कोई व्यक्ति प्रशंसा के योग्य है तो उदार बनिए और सही समय पर उसकी प्रशंसा करने अब कंजूसी बरतना छोड़ ही दीजिए।

• टी.सी. चन्दर 

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