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रविवार, 31 अक्तूबर 2010

कला मेला

एक था शनिवार कला मेला

सन् 1982 में दिल्ली में आयोजित हुए एशियाई खेलों के चक्कर में सुरक्षा व्यवस्था के चलते प्रशासन को बहाना मिल गया और इसकी गाज गिरी कला मेले पर। इस तरह कला, कलाकार और आम लोगों को आपस में जोड़ने वाले एक अच्छे प्रयास ने दम तोड़ दिया।

देश की राजधानी के कुछ कलाकारों ने मिलकर कला और कलाकारों का आमजन से सीधा साक्षात्कार कराने के दिशा में एक बेहतरीन कार्य किया था। 80 के दशक में दिल्ली के दिल कनॉट प्लेस स्थित सेन्ट्रल पार्क में एक अनूठी कला प्रदर्शनी के नियमित आयोजन का शुभारम्भ किया था। भारीभरकम कला दीर्घाओं के विपरीत खुले आकाश तले कलाकृतियों का प्रदर्शन और वहीं कलाकारों की उपस्थिति लोगों को बहुत पसन्द आयी। कलाकृतियों के साथ-साथ गिरिधर राठी की कविताओं और उनके साथ चित्रांकनों की प्रस्तुति भी एक अच्छा प्रयोग था।


स्थानीय कला प्रेमियों के अलावा देशी-विदेशी पर्यटकों को भी इस कला प्रदर्शन के आयोजन ने सहज ही आकर्षित किया। हर शनिवार को लगने वाले इस कला मेले या प्रदर्शनी का लोग इन्तजार करते थे। छोटे-बड़े ईंट-पत्थर के टुकड़ों और सीढ़ियों के सहारे टिकी कलाकृतियों का अवलोकन करते हुए दर्शक अनूठे आनन्द का अनुभव करते थे। वे पास ही जमीन पर बैठे कलाकारों से कला और उनकी कलाकृतियों के बारे में निःसंकोच बातें करते, तरह-तरह के प्रश्न करते और अपनी जिज्ञासा शान्त करते।

इस कला मेले के बारे में प्रिन्ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में भी खूब चर्चा हुई। हालांकि तब आज की भांति इतने सारे टीवी चैनल नहीं थे। दूरदर्शन पर शनिवार कला मेले को लेकर कार्यक्रम दिखाए जाते थे। स्थानीय अखबारों में इस खुले आकाश तले हर शनिवार आयोजित होने वाली कला प्रदर्शनी के बारे में छपता रहता था। इस प्रकार जानकारी पाकर दूर-पास के अनगिनत लोग कलाकृतियां देखने कनॉट प्लेस के सेन्ट्रल पार्क में आया करते थे। शनिवार या शनिवारीय कला मेला के नाम से जाना जाने वाला यह कला मेला काफी लोकप्रिय हो गया था। इसी प्रकार ललित कला महाविद्यालय के छात्रों और कुछ उत्साही युव कलाकारों ने चलती-फिरती कला प्रदर्शनी की शुरूआत भी की थी। ये लोग राजधानी के अलग-अलग भागों में हर शनिवार चित्र प्रदर्शनी लगाते थे।


इस कला मेले में चूंकि कलाकार अपनी कलाकृतियों के साथ स्वयं उपस्थित रहते थे अतः अनेक दर्शक अपने पोर्ट्रैट उनमें से कई कलाकारों से बनवाया करते थे। यही नहीं अनेक लोग अपने इष्ट मित्रों से मिलने के लिए इस कला मेले के स्थान ही तय कर देते थे। यहां जमीन आकर जमीन पर बैठकर अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित करने वालों में अनेक जानेमाने कलाकार थे। अनिल करंजई, सूरज घई, गिरधर राठी, सपन विश्वास, सतीश चैहान, कार्टूनिस्ट चन्दर (यानी मैं, तब दिल्ली के ललित कला महाविद्यालय में बीएफ़ए का छात्र था), अशोक कुमार सिंह, अशेक कुमार आदि के अलावा ललित कला महाविद्यालय, जामिया मिल्लिया, शारदा वकील, शिल्प कला विद्यालय आदि के अनेक छात्र कलाकार यहां नियमित रूप से आया करते थे। इनके अलावा देशी-विदेशी पर्यटक और अन्य कला प्रेमियों का हर शनिवार अच्छा जमावड़ा रहता था।


जहां अनगिनत लोग इस प्रयास को एक अच्छी गतिविधि मानते थे। नयी दिल्ली नगर पालिका और पुलिस ने इस कला मेले को अनेक बार हटाने, उजाड़ने या बन्द कराने के लिए बहुत कोशिशें कीं पर कला प्रेमियों के सक्रिय और कड़े विरोध के चलते उन्हें सफलता नहीं मिल सकी। सन् 1982 में दिल्ली में आयोजित हुए एशियाई खेलों के चक्कर में सुरक्षा व्यवस्था के चलते प्रशासन को बहाना मिल गया और इसकी गाज गिरी कला मेले पर। इस तरह कला, कलाकार और आम लोगों को आपस में जोड़ने वाले एक अच्छे प्रयास ने दम तोड़ दिया।

एशियाई खेलों के समापन के बाद भी तमाम दिक्कतों के चलते पुनः शनिवार कला मेला शुरू नहीं हो सका। मगर लोगों के मन-मस्तिष्क में इतना समय बीत जाने के बाद भी शनिवारीय कला मेला विद्यमान है। अब भी मुझे कभी-कभी उस कला मेले को याद करने वाले कला प्कौरेमी मिल जाते हैं। न जाने कब कोई कलाकार इससे प्रेरणा लेकर पुनः शनिवारीय कला मेला जैसा कोई आयोजन शुरू कर दे!
• सभी चित्र: चन्दर

इस कला मेले में चूंकि कलाकार अपनी कलाकृतियों के साथ स्वयं उपस्थित रहते थे अतः अनेक दर्शक अपने पोर्ट्रैट उनमें से कई कलाकारों से बनवाया करते थे। यही नहीं अनेक लोग अपने इष्ट मित्रों से मिलने के लिए इस कला मेले के स्थान ही तय कर देते थे। यहां जमीन आकर जमीन पर बैठकर अपनी कलाकृतियों को प्रदर्शित करने वालों में अनेक जानेमाने कलाकार थे

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

डेंगू

बिकाऊ ब्रांड बन गए हैं प्लेटलेट्स, डेंगू, वायरल

करीब पच्चीस साल पहले फोरहंस नामक टूथपेस्ट बनाने वाली कंपनी ने अपने प्रचार अभियान को नया फोकस देते हुए एक नारा गढ़ा था कि डाक्टर का बनाया टूथपेस्ट जो देता है आपके मसूड़ों को सुरक्षा, क्योंकि मसूड़ों का सुरक्षित होना ही दांतों की मजबूती का आधार है। जो केवल फोरहंस ही प्रदान करता है। फोरहंस इस प्रचार अभियान के चलते कई गुणा माल बेचने में कामयाब रहा जबकि हकीकत ये थी कि सभी कंपनियों के टूथपेस्ट भी मसूड़ों के लिए सुरक्षित थे व टूथपेस्ट में ये गुण बहुत पहले से ही मौजूद थे।

गोदरेज कंपनी ने करीब बीस साल पहले अपने रैफ्रीजेटर के प्रचार अभियान में एक नया दावा जोड़ा। गोदरेज रैफ्रीजेटर अब पफ सहित बाजार में उपलब्ध, पफ देता है भीतर से भरपूर ठंडक ये पफ आधारित तकनीक भीतर की ठंडक की लीकेज रोकने में भी सक्षम है। गोदरेज के इस अभियान ने जहां दिन प्रतिदिन गोदरेज की सेल को लंबी चौड़ी बढ़त दिला दी अलबत्ता दूसरी कंपनी वालों के हाथों से भी तोते उड़ गए। कारण? सभी रैफ्रीजेटर पफ तकनीक पर ही आधारित थे। पर गोदरेज ने इसे सेल प्वाइंट के रूप में पेश कर बाजार में बढ़त हासिल कर ली। उसके बाद जिस कंपनी ने भी पफ सहित होने का दावा किया, जनता में संदेश गया कि अब गोदरेज की देखा देखी फलां कंपनी ने भी पफ वाली आप्शन अडाप्ट कर ली है।

इसी प्रकार के.एल.एम नामक एयरलाईन कंपनी ने अपने प्रचार में ये दावा किया कि के.एल.एम यानि सबसे सुरक्षित हवाई सफर। हम हर उड़ान से पहले सुरक्षा की मजबूत चैक अप करते हैं। (अपने विजुअल विज्ञापन में सुरक्षा चैक करते तकनीकी स्टाफ को काफी मुस्तैद दिखाया गया।) मजेदार बात तो ये थी कि तकनीकी सुरक्षा की बारीक चैकअप तो सारी एयरलाईन कंपनियां करती हैं व ये सब करने की कानूनी बाध्यता भी है पर के.एल.एम एयर लाईन वालों ने इसी बात को अपना सेल प्वाइंट बना कर वाहवाही लूट ली।


ये सभी उदाहरण मार्केटिंग व बाजार की कार्यशैली को समझने के लिए दिए गए हैं क्योंकि देश के उत्तरी इलाकों आजकल इसी तर्ज पर डेंगू, प्लेटलेटस व वायरल को ब्रांड बना कर बेचा जा रहा है। हम बचपन में,आठवीं जमात में साइंस के पाठ्यक्रम में पढ़ा करते थे कि हमारे शरीर में दो प्रकार के सैल होते है। सफेद सैल व लाल सैल। सफेद सैल बीमारियों से लड़ते हैं। यदि सफेद सैल कमजोर पड़ जाएं तो लाल सैल हावी हो जाते हैं। शरीर पर चोट लगने पर खून के रूप में लाल सैल बहते हैं व पपड़ी के रूप में जमने वाले सफेद सैल होते हैं जो खून बहने से रोकते हैं। सफैद सैल कम हो जाएं तो शरीर बीमारी से लडऩे में पूरी तरह से सक्षम नहीं रह जाता, तभी व्यक्ति बीमार होता है। सीधी सी बात है कि जब व्यक्ति बीमार होता है तब उसके सफेद सैल कम होते हैं। ये एक सामान्य प्रक्रिया है। पर आजकल प्लेटलेटस के नाम में लिपटे सैल जनता में दहशत का आलम बनाए हुए हैं।


ऊपर से डेंगू और वायरल ऐसे ब्रांड बन गए हैं जिनसे साधारण व्यक्ति प्लेटलेटस,डेंगू और वायरल की ऐसी गडमड व्याख्या का शिकार हो रहा है कि सैल घटने के नाम पर ही ऐसे घबराता है मानो उसको साक्षात मौत दिखने लगी है। उपर से डाक्टर लोग जनता की इस भ्रामक मनोस्थिति को पूरा कैश कर रहे हैं। अस्पतालों, छोटे छोटे क्लिनिकों में लोग इतनी तादात में लेटे देखे जा सकते हैं कि इन स्थानों पर बिस्तर-बैड का मानो अकाल हो गया है। उपर से सैल टैस्ट करने के नाम पर बाजार के गिमिक्स चल रहे हैं। एक लैब से सैल सवा लाख होने का पता चलता है तो दूसरी लैब की रिपोर्ट पच्चहत्तर हजार दिखा देती है। उपर से सैल कम होने की दहशत में आए लोग बीस से पचास हजार का मत्था डाक्टरों को टेक कर भी शुक्र मनाते हैं कि वे इस जंजाल से बच गए। शायद यही कारण है कि अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्ध एक डाक्टर(डा. सतीश कुमार शर्मा, जालंधर) ने बाकायदा विज्ञापन देकर जनता को आगाह किया है कि सैल कम होने की स्थिति में घबराएं नहीं ये तीन से दस दिन में अपने आप रिकवर हो जाते हैं।


कुदरत ने ही पकड़ी है बाजू


मेरे एक मित्र के प्लेटलेट्स चालीस हजार रह गए। पर उसके अनुभवी दादा ने बिना किसी अस्पताल की शरण लिए पोते को पपीते के कच्चे पत्तों का तीन समय तक रस पिलाया। सैल दूसरे दिन अस्सी हजार हुए,तीसरे दिन सवा लाख से भी ऊपर पहुंच गए। मैने अपने घर में भी ये तजुर्बा करके देखा है। कुदरत तो कदम कदम पर हमारी रक्षा करने को मौजूद है पर हमीं ने कुदरत को भुला दिया है, शायद इसीलिए भटक भी रहे हैं और घर भी लुटा रहे हैं।


पपीते के पत्तों का कच्चा रस: डेंगू का इलाज


अर्जुन शर्मा

journalistarjun@gmail.com 09814055501

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