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शनिवार, 29 जनवरी 2011

मुसाफ़िर देहलवी की गज़लें


शाम सुहानी याद आयी
सर्दी के नशीले मौसम में, इक शाम सुहानी याद आई।
मदमस्त हवा के झोंकों में, वो ऋतु मस्तानी याद आई॥

कोहरे की ठिठुरती वादी में, फ़ूलों के महकते साये में।
वो इश्क़ में ग़ाफ़िल दुनिया से, वो शोख जवानी याद आई॥

वो हुश्न-ए-सरापा जोशे जुनूं, वो हंस के लिपट जाने की अदा।
अहसास दिलाती गर्मी का, मौज़ों की रवानी याद आयी॥

कॉफ़ी हाउस की टेबल पर, वो प्यार-मोहब्बत की बातें।
वो शाम-ए- जुदाई की घड़ियां, शबनम की जवानी याद आई॥

ऐ जाने वफ़ा तू भी हमको, क्या याद कभी करता होगा।
हमको तो तेरी हर महफ़िल में, हर बात पुरानी याद आई॥

आंखों में छुपे थे जो आंसू, वो शबनम के संग बरस गए।
गुलशन में महकते फ़ूलों संग, सूरत लासानी याद आई॥

यादों के सुहाने वो मन्ज़र वो मोड़ ’मुसाफ़िर’ वो रस्ते।
हमराह चले उन कदमों की, हर एक निशानी याद आई॥
११०१२९
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धूप की ग़ज़ल
गुलबदन तपती दोपहरी में, न चलिये धूप में
हो सके तो वक़्त चलने का, बदलिये धूप मैं

डर है कोई मनचला, राहें न रोके आपकी
वक़्त नाजुक है बड़ा, तन्हा न चलिये धूप मैं

हुस्न की रंगत कहीं, सूरज न बढ़के छीन ले
माना मौसम है बुरा, खुद ना बदलिये धूप मैं

मरमरी उजला बदन, काला न पड़ जाए कहीं
गर्म है सारी *फ़िज़ां, बचकर के चलिये धूप में

जिस्म से बहता पसीना, उससे भीगा *पैरहन 
गर्मियों में शम्मा जैसी, ना पिघलिये धूप मैं

*सहने गुलशन में कई, भंवरे मिलेंगे आपको
फूल सी लेकर जवानी, ना निकलिये धूप मैं

दोस्ताना मशवरा है, आप मानें या नहीं
छुट्टियां हों तब भी, घर से ना निकलिये धूप मैं

मीलों लम्बा है सफ़र, मंज़िल ‘मुसाफ़िर’ दूर है
रास्ता कट जायेगा, मिलकर तो चलिये धूप मैं

* १.वातावरण, आलम २. पहनावा, लिबास ३. बाग

मुसाफ़िर देहलवी
द्वारका, नयी दिल्ली
musafirdehlvi@gmail.com 
© Musafir Dehlvi 

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