खरनाक हैं गुटखा-तम्बाकू-शराब
प्रयास करें तो आप आसानी से इन्हें छोड़ सकते हैं
आपको बीड़ी सिगरेट की तलब न आए, गुटखा खाने की तलब न लगे, शारब पीने की तलब न लगे! इसके लिए बहुत अच्छे दो उपाय है जो आप बहुत आसानी से कर सकते है। पहला यह कि जिनको बार-बार तलब लगती है, जो अपनी तलब पर नियन्त्रण नहीं कर पाते, इसका मतलब उनका मन कमजोर है। तो पहले मन को मजबूत बनाओ।
लम्बे समय तक तम्बाकू का प्रयोग करने से कई बीमारियां हो सकती हैं। भारत में मरने वाले हर पांच में से दो लोगो की मौत का मुख्य कारण खैनी, गुटखा या तम्बकू है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने अपनी ताजा रिपोर्ट में खुलासा किया है कि दुनिया भर में 30 साल से ज्यादा उम्र के लगभग 12 फीसदी लोगों की मौत का कारण खैनी, तम्बाकू, गुटखा आदि हैं।
भारत में लगभग 16 प्रतिशत लोग इन्हीं तंबाकू उत्पादनों के सेवन से मर रहे हैं। धुआं रहित तंबाकू सेवन के मामले में भारत सबसे अव्वल देशों में से एक है। रिपोर्ट में आगे बताया गया है कि धुआं रहित तंबाकू उत्पादों में सबसे ज्यादा सेवन खैनी का होता है। लगभग 91 प्रतिशत महिलाएं धुआं रहित तंबाकू का सेवन करती हैं। इनमें पान और खैनी शामिल है। मोटर्लटी एट्रीब्यूटेबल टू टोबको नामक रिर्पोट के अनुसार, तंबाकू सेवन के कारण 6 सकेंड में एक व्यकित की मौत हो रही है। पूरी दुनिया में लगभग 50 लाख लोगों की मौत का कारण तंबाकू का इस्तेमाल है।
अगले 20 वर्षों में सिगरेट, गुटखा, खैनी, बीड़ी, तंबाकू और हुक्का पीने से पूरी दुनिया में लगभग 6 लाख लोग सेकेंड़ हैंड स्मोकिंग की वजह से मर रहे हैं यानी तंबाकू सेवन करने वाले लोग अपनी ही नहीं बल्कि अपने परिवार और आसपास रहने वाले लोगों की भी जान ले रहे हैं। ग्लोबल अडल्ट टोबैको सर्वे के अनुसार, देश में लगभग 27 लाख लोगों की तम्बाकू का सेवन कर रहे हैं। इनमें से लगभग 9 लाख लोगों की असमय मौत तय है। ग्लोबल यूथ टोबैको (गेट्स) के अनुसार, दिल्ली में 48.2 फीसदी युवा 15 साल से कम की उम्र में ही तम्बाकू का सेवन शुरू कर देते हैं। यहां के 13 लाख लोग पैसिव स्मोकर और 10 लाख लोग गुटखा के रूप में तम्बाकू का सेवन करते हैं। शोध के अनुसार 5 से 10 साल तक लगातार तम्बाकू सेवन करने वाले 30% युवाओं में नपुंसकता पाई गई है।
पुरी पोस्ट नही पढ़ सकते तो यहां click करे- http://youtu.be/6VytOKTVRN0
तलब से ऐसे पाएं छुटकारा
बहुत से लोग नशा छोड़ना चाहते है पर उनसे छूटता नहीं है। बार-बार वे कहते है हमें मालूम है यह गुटका खाना अच्छा नहीं है लेकिन तलब उठ जाती है तो क्या करें? बार-बार लगता है ये बीड़ी सिगरेट पीना अच्छा नहीं है लेकिन तलब उठ जाती है तो क्या करें?
बार-बार महसूस होता है यह शाराब पीना अच्छा नहीं है लेकिन तलब हो जाती है तो क्या करें? तो आपको बीड़ी सिगरेट की तलब न आए, गुटखा खाने की तलब न लगे, शारब पीने की तलब न लगे! इसके लिए बहुत अच्छे दो उपाय है जो आप बहुत आसानी से कर सकते है। पहला यह कि जिनको बार-बार तलब लगती है, जो अपनी तलब पर नियन्त्रण नहीं कर पाते, इसका मतलब उनका मन कमजोर है। तो पहले मन को मजबूत बनाओ।
मन को मजबूत बनाने का सबसे आसान उपाय है पहले थोड़ी देर आराम से पालती मार कर बैठ जाओ जिसको सुख आसन कहते हैं। फिर अपनी आखें बंद कर लो फिर अपनी दायीं (right side) नाक बंद कर लो और खाली बायीं (left side) नाक से सांस भरो और छोड़ो! फिर सांस भरो और छोड़ो, फिर सांस भरो और छोड़ो।
बायीं नाक मे चंद्र नाड़ी होती है और दाई नाक मे सूर्य नाड़ी। चंद्र नाड़ी जितनी सक्रिय (active) होगी उतना इंसान का मन मजबूत होता है और इससे संकल्प शक्ति बढ़ती है। चंद्र नाड़ी जितनी सक्रिय होती जाएगी, आपकी मन की शक्ति उतनी ही मजबूत होती जाएगी। और आप इतने संकल्पवान हो जाएंगे। जो बात आप ठान लेंगे उसको बहुत आसानी से कर लेगें। तो पहले रोज सुबह 5 मिनट तक नाक की right side को दबा कर left side से सांस भरे और छोड़ो। यह एक तरीका है जो बहुत आसान है।
दूसरा एक और तरीका है। आपके घर मे एक आयुर्वेदिक ओषधि है जिसको आप जानते-पहचानते हैं। राजीव भाई ने उसका बहुत इस्तेमाल किया है लोगो का नशा छुड्वने के लिए। उस ओषधि का नाम है अदरक जो सबके घर मे होती है। इस अदरक के छोटे-छोटे टुकड़े कर लो। उस मे नींबू निचोड़ दो और थोड़ा सा काला नमक मिला लो फ़िर इसको धूप मे सूखा लो। सुखाने के बाद जब इसका पूरा पानी सूख जाए तो इन अदरक के टुकड़ो को अपनी जेब में डिब्बी में या पुड़िया बनाकर रखें। जब तलब उठे तो निकालें और चूसें। जब भी दिल करे गुटका या तम्बाकू खाना, बीड़ी-सिगरेट पीनी है तो आप एक अदरक का टुकड़ा निकालें और मुंह मे रखकर चूसना शुरू कर दें। यह अदरक अदभुत चीज है। आप इसे दाँत से काटो मत और सवेरे से शाम तक मुंह मे रखो तो शाम तक आपके मुंह मे सुरक्षित रहेगा। इसको चूसते रहो आपको गुटका खाने की तलब ही नहीं उठेगी। तंबाकू-सिगरेट लेने की इच्छा ही नहीं होगी या शराब पीने का मन ही नहीं करेगा। यह बहुत आसान काम है कोई मुश्किल काम नहीं है।
आप बोलेगे अदरक मैं आखिर ऐसी क्या चीज है ? यह अदरक मे एक ऐसे चीज है जिसे हम रसायनशास्त्र (क्मिस्ट्री) मे कहते है सल्फर। अदरक मे सल्फर बहुत अधिक मात्रा मे है और जब हम अदरक को चूसते है तो यह हमारी लार के साथ मिल कर अंदर जाने लगता है और सल्फर खून मे मिलने लगता है। यह अंदर जाकर ऐसे हारमोन्स को सक्रिय कर देता है जो हमारे नशा करने की इच्छा को खत्म कर देता है।
विज्ञान की शोध के अनुसार यह माना जाता है कि कि कोई आदमी नशा तब करता है जब उसके शरीर मे सल्फर की कमी होती है तो उसको बार बार तलब लगती है बीड़ी सिगरेट तंबाकू आदि की। सल्फर की मात्रा आप पूरी कर दो बाहर से ये तलब खत्म हो जाएगी। इसका राजीव भाई ने हजारो लोगो पर परीक्षण किया और बहुत ही सुखद प्रणाम सामने आए। बिना किसी खर्चे के शराब छूट जाती है बीड़ी सिगरेट शराब गुटका आदि छूट जाता है। आपको यदि ऐसी कोई लत है और आप उससे छुटकारा पाना चाहते हैं तो इसका प्रयोग अवश्कय करके देखें। आप नि:सन्देह सफ़ल होंगे।
इसका दूसरे उपयोग का तरीका भी पढें।
अदरक के रूप मे सल्फर भगवान ने बहुत अधिक मात्रा मे दिया है और सस्ता है। इसी सल्फर को आप होम्योपैथी की दुकान से भी प्राप्त कर सकते हैं। आप कोई भी हो म्योपैथी की दुकान से सल्फर नाम की दावा ले लें। आपको शीशी मे भरी हुई दवा मिलेगी। सल्फर नाम की दावा होम्योपैथी में तरल के रूप मे आती है, प्रवाही के रूप मे आती है जिसको हम Dilution कहते है अँग्रेजी में।
देखने मे ऐसे ही लगेगा जैसे यह पानी है। 5 मिली दवा की शीशी लगभग 5 रुपये में आती है और उस दवा का एक बूंद जीभ पर डाल लें सुबह खाली पेट। फिर अगले दिन और एक बूंद डाल लें। 3 खुराक लेते ही 50 से 60% लोगों की दारू छूट जाती है और जो ज्यादा पियक्कड़ हैं। जिनकी सुबह दारू से शुरू होती है और शाम दारू पर खतम होती है ! वो लोग हफ्ते मे दो दो बार लेते रहे तो एक दो महीने तक करे बड़े बड़े पियकरों की दारू छूट जाएगी। राजीव भाई ने ऐसे-ऐसे पियकाड़ों की दारू छुड़ाई है जो सुबह से पीना शुरू करते थे और रात तक पीते रहते थे उनकी भी दारू छूट गई, बस दो-तीन महीने का समय लगा।
ये सल्फर अदरक मे भी है और होम्योपेथी की दुकान में भी उपलब्ध है जिसे आप आसानी से खरीद सकते है। लेकिन जब आप होम्योपैथी की दुकान पर खरीदने जाएं तो 200 potency या शक्ति की yaa
सल्फ़र 200 दवा मांगें। आप 200 मिली लीटर का बोतल खरीद लें जो शायद 150 रुपए में मिलेगी। आप सैकड़ों लोगो की शराब छुड़वा सकते हैं मात्र एक बोतल से। लेकिन साथ में आप मन को मजबूत बनाने के लिए रोज सुबह बायीं नाक से सांस लें और अपनी इच्छा शक्ति मजबूत अवश्य करें।
अब एक खास बात। बहुत ज्यादा चाय और काफी पीने वालों के शरीर में आर्सेनिक (arsenic) तत्व की कमी हो जाती है। उसके लिए आप arsenic 200 का प्रयोग करें। गुटखा, तम्बाकू खाने वालों और सिगरेट-बीड़ी पीने वालों के शरीर में फ़ॉस्फ़ोरस (phosphorus) तत्व की कमी हो जाती है। उसके लिए आप phosphorus 200 का प्रयोग करें। शराब पीने वाले में सबसे ज्यादा सल्फ़र (sulphur) तत्व की कमी होती है। उसके लिए आप sulphur 200 का प्रयोग करें। अच्छा यही है कि आप शुरुआत अदरक से ही करें।
वन्देमातरम !
एक बार यहाँ जरूर click करे !
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बुधवार, 17 अक्तूबर 2012
मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012
एफ़डीआई
ममता या तो यहाँ से आर या पार
• जगमोहन फ़ुटेला
अपने अपने राज्य में एफडीआई का विरोध भी सियासी मजबूरी है ही कइयों के लिए। ऐसे में मुलायम, नितीश, नवीन पटनायक, चौटाला, खुद ममता, कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ मजबूरी में चल रहे करूणानिधि या जयललिता में से किसी एक और चंद्रबाबू नायडू जैसों के साथ मिल के अगर कोई मोर्चा बना सकें ममता तो वोट शेयर तो तब यूपीए और एनडीए का भी तब आज के 30 और 28 प्रतिशत से घट कर बड़ी आसानी से शायद 25 से भी नीचे आ लेगा।
मैं सोचता हूँ जो नवीन या उन के पिता बीजू पटनायक ने नहीं किया, करूणानिधि ने नहीं किया, बादल, चौटाला, चंद्रबाबू नायडू ने न किया। न बालासाहब ठाकरे ने। मुलायम और माया जो कर के भी कुछ हासिल नहीं कर पाए। महत्वाकांक्षा के साथ मिली ग्लैमरी चमक के साथ जयललिता ने भी जो नहीं किया, वो ममता बनर्जी क्यों कर रही हैं? क्यों उन्हें लगता है कि धमक वे देश में भी पैदा कर सकती हैं और उन्हें अब राष्ट्रीय स्तर पर भी राजनीति कर ही लेनी चाहिए? मान ही लेना चाहिए कि या तो बहुत मह्त्वाकांक्षिणी हैं या बहुत भोली हैं।
इस सब पे मंथन इस लिए इस लिए और भी ज़रूरी है कि वे जो कर रही हैं वो उनको पड़ा कोई दिमागी दौरा नहीं है। आज चढ़ा, कल उतर जाने वाला बुखार भी नहीं है। एफडीआई का मुद्दा भले उतना मज़बूत न हो उन का, इरादा मज़बूत है। लगता है उनके सलाहकारों ने सलाह तो ठीक ही दी है उन्हें। वे कांग्रेस का तो पता नहीं, कामरेडों का नुक्सान तो ज़रुर कर देंगी बंगाल के भीतर और बाहर भी। कभी वे सड़कों पे उतरते थे मंहगाई जैसे आर्थिक मुद्दों पे कांग्रेस के खिलाफ। आज ममता जंतर-मंतर पंहुची हुई हैं
कम्युनिस्टों को एक तरह से मुद्दाविहीन कर ही दिया है उन्होंने। बंगाल के भीतर उनकी ये छवि भी बन ही रही है उनकी कि अब ममता के कांग्रेस को छोड़ देने के बाद वामपंथी शायद फिर दामन थामेंगे कांग्रेस का बंगाल में। उनकी छवि का अच्छा ख़ासा कचरा कर रही है ममता की पार्टी बंगाल में। ऐसे में कांग्रेस की असली दुश्मन दिख के ममता कामरेडों को तो जैसे संदर्भहीन बना देने पर तुली हैं। इस अर्थ में एक बड़ी लड़ाई लड़ और उस में विजयी होती भी दिख रही हैं वे। लेकिन यक्ष प्रश्न फिर वही है। जब कोई क्षत्रप कामयाब नहीं हुआ किसी भी प्रदेश या अंचल का राष्ट्रीय स्तर पे, तो ममता वो प्रयोग करना ही क्यों चाह रहीं हैं? तब क्योंकि जब वो बड़ा जोखिम भरा भी है। ठीक से न हो पाए तो किसी हद तक आत्मघाती भी।
किसी भी प्रदेश के मुद्दे और आपको उस की राजनीति के शिखर तक भी ले आने के कारण होते हैं। पड़ोसी राज्य के साथ आपका कोई विवाद है तो किसी भी हद तक बोल या जा सकते हो आप अपने राज्य के लोगों को खुश करने के लिए। राष्ट्रीय राजनीति करनी हो तो उस राज्य में अपनी पार्टी की मजबूरियों, मुद्दों, राजनीति, हालत को भी देखना पड़ता है। यूं भी ठोस आर्थिक मुद्दों पर राजनीति कर सकते हो आप अपने बंगाल में। लेकिन पंजाब में मुद्दे जैसे होते ही नहीं हैं। पंजाब में तो पंजाब से बाहर के डेरों और बाबाओं की भी एक भूमिका होती है आपकी पार्टी को जितवाने या हरवाने में। भाषा और पहरावा भी एक वजह है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में तो जयललिता ने प्रचार किया नहीं कभी, लालू आये भी कांग्रेस का प्रचार करने तो कुछ नहीं कर पाए। संजय दत्त और राज बब्बर जैसे भीड़ बटोरू सितारे भी चौटाला का प्रचार करते रहे हैं हरियाणा में। आज दोनों वाया समाजवादी पार्टी कांग्रेस में हैं. सो, कोई विश्वसनीयता या कहें कि कोई अहमियत, इज्ज़त भी नहीं है उन की किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता की।
ममता ने भी जो भाषण दिया दिल्ली में कभी वे खुद भी सुनेंगी तो आधा उन की खुद समझ में भी नहीं आएगा। संवाद के लिए भाषा का महत्व है तो है. और वो भाषा उन्हें नहीं आती जिस से वे उत्तर भारत की जनता के साथ संवाद भी कर सकें। लेकिन जिन्हें खुद हिंदी नहीं आती उन जनार्दन द्विवेदी और राजीव शुक्ला जैसों को रख के अगर सोनिया गाँधी को भी हिंदी नहीं आयी और वो फिर भी कोई पद लिए बिना हिंदुस्तान पे राज कर सकती हैं तो फिर ममता क्यों नहीं? सवाल जायज़ है। लेकिन सोनिया ममता नहीं हैं। सोनिया को देश की सियासत भी विरासत में मिली है. ममता ने जो पाया वो खुद कमाया है। सोनिया अपने किन्हीं गुणों या उपलब्धियों की वजह से सत्ताधारी कांग्रेस की मुखिया नहीं हैं। वे न होंगी तो कल राहुल कांग्रेस की मजबूरी हो जायेंगे। लेकिन ममता का जो है बंगाल में कार्यकर्त्ता से लेकर सत्ता तक, सब ममता की वजह से और उन के साथ होने से है। डर ये है कि देश की राजनीति के चक्कर में वे कहीं बंगाल तो नहीं खो देंगी? और ये खतरा इस लिए है कि बंगाल के बाहर उन्हें वो रुतबा मिलने नहीं वाला है कि वापिस जा कर वे विजयी मुद्रा में दिख सकें। बंगाल के बाहर बंगाल की खाड़ी से गहरी समस्याएं हैं और वे बंगाल से अलग भी हैं। इस पर तुर्रा ये कि अभी तो उनके उत्तर भारतीय संगठन में वे लोग दिख रहे हैं जो खुद कांग्रेस में फुंके हुए कारतूस साबित हुए हैं। और सब से बड़ी बात ये है कि बंगाल के बाहर राज्यों में कांग्रेस का विकल्प अगर लोग अगर देखते भी हैं तो वो वे उन में नहीं देखते। और विशुद्ध चुनावी अंकगणित के हिसाब से देखें तो आप के काटे कांग्रेसी वोट फायदा तो उस राज्य में कांग्रेस के प्रमुख विपक्षी दल को ही पंहुचाते हैं। इस अर्थ में जब आपकी सारी मेहनत आज या कल वोटों, सीटों और निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या के रूप में दिखाई नहीं देती तो फिर खुद अपना संगठन भी देर सबेर बिखरने लगता है।
लोग बड़े गरजाऊ हैं। सत्ताधारी या सत्ता में आ सकने वाली पार्टी का झंडा गाड़ी पे लगाना उन का शौक नहीं, मजबूरी भी है। बंगाल के बाहर वे टीएमसी का नहीं लगाएंगे। और अगर टीएमसी ने बिना गाँव, पंचायत, ब्लाक जैसी तैयारी के अभी हिमाचल चुनाव लड़ने जैसी गलती कर दी तो फिर किसी उत्तरी राज्य में पैसे दे के क्या, पैसे ले के भी कोई टिकट लेने न आएगा। माया जो पिछले चार चार चुनाव लड़ के भी कुछ हासिल नहीं कर पाईं इधर के राज्यों में वो ममता चार महीनों की मशक्कत से हासिल कर लेना चाहती हैं तो फिर वे मां जैसी भोली हैं, माटी जैसी कच्ची हैं और मानुष जैसे गलत भी फैसले कर सकने वाली महिला तो हैं ही. लेकिन इस सब के बावजूद वे वो कर सकती हैं जो इस देश की राजनीति में कभी किसी ने नहीं किया. कम से आज तो कोई करता नहीं दीखता। और उस की ज़बरदस्त संभावना और ज़रूरत भी है। वे तीसरा मोर्चा बना सकती हैं। बना वो पहले भी। लेकिन उस की आज जैसी सख्त ज़रूरत कभी नहीं रही। यूपीए और एनडीए दोनों को तीस प्रतिशत से ऊपर वोट शेयर न देने वाले सर्वे छोडो। घोटालों पे घोटालों, उस पर राहुल गाँधी का कार्ड यूपी तक में न चल पाने और उस पे भी अन्ना, रामदेव जैसों की पैदा की जाग्रति और छवि तो थी ही। अब एफडीआई, मंहगाई भी आम आदमी को अपने आप आपका बना देने वाला मुद्दा है।
अपने अपने राज्य में एफडीआई का विरोध भी सियासी मजबूरी है ही कइयों के लिए। ऐसे में मुलायम, नितीश, नवीन पटनायक, चौटाला, खुद ममता, कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ मजबूरी में चल रहे करूणानिधि या जयललिता में से किसी एक और चंद्रबाबू नायडू जैसों के साथ मिल के अगर कोई मोर्चा बना सकें ममता तो वोट शेयर तो तब यूपीए और एनडीए का भी तब आज के 30 और 28 प्रतिशत से घट कर बड़ी आसानी से शायद 25 से भी नीचे आ लेगा। बदला ही लेना है अगर कांग्रेस से तो फिर ये बड़ी मार होगी। और देश के राजनीतिक परिद्रश्य पे एक बड़ी भूमिका भी अदा करनी है उन को तो फिर वो स्थिति बड़ी संतोष दायिनी होगी। ये भी उन्हें करना है तो फिर इसी 2014 के चुनाव में कर लेना चाहिए। वरना आंध्र पे जब नायडू, तमिलनाडु पे करुणा और अम्मा, यूपी में माया या मुलायम, बिहार पे लालू, पंजाब पे अकालियों और हरियाणा पे चौटाला का पट्टा नहीं लिखा तो इस बात की भी क्या गारंटी है कि बंगाल पे राज हमेशा ममता ही करेंगी! ink- http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2118:2012-10-01-19-10-58&catid=34:articles&Itemid=54
• जगमोहन फ़ुटेला
अपने अपने राज्य में एफडीआई का विरोध भी सियासी मजबूरी है ही कइयों के लिए। ऐसे में मुलायम, नितीश, नवीन पटनायक, चौटाला, खुद ममता, कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ मजबूरी में चल रहे करूणानिधि या जयललिता में से किसी एक और चंद्रबाबू नायडू जैसों के साथ मिल के अगर कोई मोर्चा बना सकें ममता तो वोट शेयर तो तब यूपीए और एनडीए का भी तब आज के 30 और 28 प्रतिशत से घट कर बड़ी आसानी से शायद 25 से भी नीचे आ लेगा।
इस सब पे मंथन इस लिए इस लिए और भी ज़रूरी है कि वे जो कर रही हैं वो उनको पड़ा कोई दिमागी दौरा नहीं है। आज चढ़ा, कल उतर जाने वाला बुखार भी नहीं है। एफडीआई का मुद्दा भले उतना मज़बूत न हो उन का, इरादा मज़बूत है। लगता है उनके सलाहकारों ने सलाह तो ठीक ही दी है उन्हें। वे कांग्रेस का तो पता नहीं, कामरेडों का नुक्सान तो ज़रुर कर देंगी बंगाल के भीतर और बाहर भी। कभी वे सड़कों पे उतरते थे मंहगाई जैसे आर्थिक मुद्दों पे कांग्रेस के खिलाफ। आज ममता जंतर-मंतर पंहुची हुई हैं
कम्युनिस्टों को एक तरह से मुद्दाविहीन कर ही दिया है उन्होंने। बंगाल के भीतर उनकी ये छवि भी बन ही रही है उनकी कि अब ममता के कांग्रेस को छोड़ देने के बाद वामपंथी शायद फिर दामन थामेंगे कांग्रेस का बंगाल में। उनकी छवि का अच्छा ख़ासा कचरा कर रही है ममता की पार्टी बंगाल में। ऐसे में कांग्रेस की असली दुश्मन दिख के ममता कामरेडों को तो जैसे संदर्भहीन बना देने पर तुली हैं। इस अर्थ में एक बड़ी लड़ाई लड़ और उस में विजयी होती भी दिख रही हैं वे। लेकिन यक्ष प्रश्न फिर वही है। जब कोई क्षत्रप कामयाब नहीं हुआ किसी भी प्रदेश या अंचल का राष्ट्रीय स्तर पे, तो ममता वो प्रयोग करना ही क्यों चाह रहीं हैं? तब क्योंकि जब वो बड़ा जोखिम भरा भी है। ठीक से न हो पाए तो किसी हद तक आत्मघाती भी।
किसी भी प्रदेश के मुद्दे और आपको उस की राजनीति के शिखर तक भी ले आने के कारण होते हैं। पड़ोसी राज्य के साथ आपका कोई विवाद है तो किसी भी हद तक बोल या जा सकते हो आप अपने राज्य के लोगों को खुश करने के लिए। राष्ट्रीय राजनीति करनी हो तो उस राज्य में अपनी पार्टी की मजबूरियों, मुद्दों, राजनीति, हालत को भी देखना पड़ता है। यूं भी ठोस आर्थिक मुद्दों पर राजनीति कर सकते हो आप अपने बंगाल में। लेकिन पंजाब में मुद्दे जैसे होते ही नहीं हैं। पंजाब में तो पंजाब से बाहर के डेरों और बाबाओं की भी एक भूमिका होती है आपकी पार्टी को जितवाने या हरवाने में। भाषा और पहरावा भी एक वजह है। पंजाब, हरियाणा, दिल्ली में तो जयललिता ने प्रचार किया नहीं कभी, लालू आये भी कांग्रेस का प्रचार करने तो कुछ नहीं कर पाए। संजय दत्त और राज बब्बर जैसे भीड़ बटोरू सितारे भी चौटाला का प्रचार करते रहे हैं हरियाणा में। आज दोनों वाया समाजवादी पार्टी कांग्रेस में हैं. सो, कोई विश्वसनीयता या कहें कि कोई अहमियत, इज्ज़त भी नहीं है उन की किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता की।
ममता ने भी जो भाषण दिया दिल्ली में कभी वे खुद भी सुनेंगी तो आधा उन की खुद समझ में भी नहीं आएगा। संवाद के लिए भाषा का महत्व है तो है. और वो भाषा उन्हें नहीं आती जिस से वे उत्तर भारत की जनता के साथ संवाद भी कर सकें। लेकिन जिन्हें खुद हिंदी नहीं आती उन जनार्दन द्विवेदी और राजीव शुक्ला जैसों को रख के अगर सोनिया गाँधी को भी हिंदी नहीं आयी और वो फिर भी कोई पद लिए बिना हिंदुस्तान पे राज कर सकती हैं तो फिर ममता क्यों नहीं? सवाल जायज़ है। लेकिन सोनिया ममता नहीं हैं। सोनिया को देश की सियासत भी विरासत में मिली है. ममता ने जो पाया वो खुद कमाया है। सोनिया अपने किन्हीं गुणों या उपलब्धियों की वजह से सत्ताधारी कांग्रेस की मुखिया नहीं हैं। वे न होंगी तो कल राहुल कांग्रेस की मजबूरी हो जायेंगे। लेकिन ममता का जो है बंगाल में कार्यकर्त्ता से लेकर सत्ता तक, सब ममता की वजह से और उन के साथ होने से है। डर ये है कि देश की राजनीति के चक्कर में वे कहीं बंगाल तो नहीं खो देंगी? और ये खतरा इस लिए है कि बंगाल के बाहर उन्हें वो रुतबा मिलने नहीं वाला है कि वापिस जा कर वे विजयी मुद्रा में दिख सकें। बंगाल के बाहर बंगाल की खाड़ी से गहरी समस्याएं हैं और वे बंगाल से अलग भी हैं। इस पर तुर्रा ये कि अभी तो उनके उत्तर भारतीय संगठन में वे लोग दिख रहे हैं जो खुद कांग्रेस में फुंके हुए कारतूस साबित हुए हैं। और सब से बड़ी बात ये है कि बंगाल के बाहर राज्यों में कांग्रेस का विकल्प अगर लोग अगर देखते भी हैं तो वो वे उन में नहीं देखते। और विशुद्ध चुनावी अंकगणित के हिसाब से देखें तो आप के काटे कांग्रेसी वोट फायदा तो उस राज्य में कांग्रेस के प्रमुख विपक्षी दल को ही पंहुचाते हैं। इस अर्थ में जब आपकी सारी मेहनत आज या कल वोटों, सीटों और निर्वाचित प्रतिनिधियों की संख्या के रूप में दिखाई नहीं देती तो फिर खुद अपना संगठन भी देर सबेर बिखरने लगता है।
लोग बड़े गरजाऊ हैं। सत्ताधारी या सत्ता में आ सकने वाली पार्टी का झंडा गाड़ी पे लगाना उन का शौक नहीं, मजबूरी भी है। बंगाल के बाहर वे टीएमसी का नहीं लगाएंगे। और अगर टीएमसी ने बिना गाँव, पंचायत, ब्लाक जैसी तैयारी के अभी हिमाचल चुनाव लड़ने जैसी गलती कर दी तो फिर किसी उत्तरी राज्य में पैसे दे के क्या, पैसे ले के भी कोई टिकट लेने न आएगा। माया जो पिछले चार चार चुनाव लड़ के भी कुछ हासिल नहीं कर पाईं इधर के राज्यों में वो ममता चार महीनों की मशक्कत से हासिल कर लेना चाहती हैं तो फिर वे मां जैसी भोली हैं, माटी जैसी कच्ची हैं और मानुष जैसे गलत भी फैसले कर सकने वाली महिला तो हैं ही. लेकिन इस सब के बावजूद वे वो कर सकती हैं जो इस देश की राजनीति में कभी किसी ने नहीं किया. कम से आज तो कोई करता नहीं दीखता। और उस की ज़बरदस्त संभावना और ज़रूरत भी है। वे तीसरा मोर्चा बना सकती हैं। बना वो पहले भी। लेकिन उस की आज जैसी सख्त ज़रूरत कभी नहीं रही। यूपीए और एनडीए दोनों को तीस प्रतिशत से ऊपर वोट शेयर न देने वाले सर्वे छोडो। घोटालों पे घोटालों, उस पर राहुल गाँधी का कार्ड यूपी तक में न चल पाने और उस पे भी अन्ना, रामदेव जैसों की पैदा की जाग्रति और छवि तो थी ही। अब एफडीआई, मंहगाई भी आम आदमी को अपने आप आपका बना देने वाला मुद्दा है।
अपने अपने राज्य में एफडीआई का विरोध भी सियासी मजबूरी है ही कइयों के लिए। ऐसे में मुलायम, नितीश, नवीन पटनायक, चौटाला, खुद ममता, कांग्रेस और भाजपा दोनों के साथ मजबूरी में चल रहे करूणानिधि या जयललिता में से किसी एक और चंद्रबाबू नायडू जैसों के साथ मिल के अगर कोई मोर्चा बना सकें ममता तो वोट शेयर तो तब यूपीए और एनडीए का भी तब आज के 30 और 28 प्रतिशत से घट कर बड़ी आसानी से शायद 25 से भी नीचे आ लेगा। बदला ही लेना है अगर कांग्रेस से तो फिर ये बड़ी मार होगी। और देश के राजनीतिक परिद्रश्य पे एक बड़ी भूमिका भी अदा करनी है उन को तो फिर वो स्थिति बड़ी संतोष दायिनी होगी। ये भी उन्हें करना है तो फिर इसी 2014 के चुनाव में कर लेना चाहिए। वरना आंध्र पे जब नायडू, तमिलनाडु पे करुणा और अम्मा, यूपी में माया या मुलायम, बिहार पे लालू, पंजाब पे अकालियों और हरियाणा पे चौटाला का पट्टा नहीं लिखा तो इस बात की भी क्या गारंटी है कि बंगाल पे राज हमेशा ममता ही करेंगी! ink- http://journalistcommunity.com/index.php?option=com_content&view=article&id=2118:2012-10-01-19-10-58&catid=34:articles&Itemid=54
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जस की तस धर दीनी चदरिया नार्वी नहीं रहे ! नये साल के पहले महीने की दस तारीख़ को उनका शरीर शांत हो गया| एक दिन पहले ही फोन पर उनसे तब...
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१०२ साल की छोकरी • दिनेश कुमार गेरा जोहरा आपा. मैं दादी कहना चाहता था, पर आपा कहता हूं तो सबकी आवाज मेरी आवाज में शामिल हो जाती है....
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कैसे और क्यों ‘बनाया’ अमेरिका ने अरविंद केजरीवाल को संदीप देव, नयी दिल्ली प्रशांत भूषण, अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और उनके ‘पंजी...