खोज

शनिवार, 27 जुलाई 2013

इंगलिशनामा

देश के लोग अपनी भाषा सीखें या न सीखें। उन भाषाओं के जरिये उन्हें काम-काज मिले या न मिले। परंतु कायदा यह हो कि उन्हें अंग्रेजी सीखनी ही होगी वरना वे शिक्षित नहीं माने जाएंगे। उन्हें ऊंची नौकरियां नहीं मिलेंगीइसे आप क्या कहेंगेक्या यह महामूर्खता नहीं है?
इस  समय देश में एक पुरानी बहस फिर चल पड़ी है। अंग्रेजी से देश को फायदा हुआ है या नुकसानमेरा निवेदन है कि अंग्रेजी से फायदा कम हुआ और नुकसान ज्यादा। किसी भी नई भाषा को सीखने से फायदा ही होता है। यदि वह भाषा विदेशी हो तो और ज्यादा फायदा हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय व्यापारकूटनीतिव्यवसाय,ज्ञान-विज्ञान और सम्पर्क की नई खिड़कियां खुलती हैं। भारत के तीन-चार प्रतिशत लोग कामचलाऊ अंग्रेजी जानते हैं। इसका उन्हें फायदा जरूर मिला है। नौकरियों में उनका बोलबाला है। व्यापार व समाज में उनका वर्चस्व है। वे भारत के नीति-निर्माता व भाग्य-विधाता हैं। १२५ करोड़ के इस देश को ये ही चार-पांच करोड़ लोग चला रहे हैं। अंग्रेजीदां लोग प्राय: शहरों में रहते हैंतीन-चार हजार कैलोरी का स्वादिष्ट और पोषक भोजन रोज करते हैं। साफ-सुथरे चकाचक वस्त्रों और आभूषणों से लदे-फदे रहते हैं। उन्हें चिकित्सामनोरंजन और सैर-सपाटे की सभी सुविधाएं उपलब्ध रहती हैं। उनके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के महंगे स्कूलों में पढ़ते हैं।
तो क्या यह भारत का नुकसान हैइस प्रश्न का उत्तर यह प्रश्न है कि गिलास कितना भरा हैएक गिलास में १२५ ग्राम पानी आ सकता है। यदि उसमें सिर्फ पांच ग्राम पानी भरा हो तो आप उसे क्या कहेंगेवह भरा है या खाली है? १२५ करोड़ के देश में सिर्फ चार-पांच करोड़ लोगों के पास सारी सुविधाएंसारी समृद्धिसारे अधिकार,सारी शक्तियां जमा हो जाएं तो इसे आप क्या कहेंगेक्या यह सारे देश का फायदा हैनहींयह उस छोटे से चालाक भद्रलोक का फायदा हैजिसने अंग्रेजी का जादू-टोना चलाकर भारत में अपने स्वार्थों का तिलिस्म खड़ा कर लिया है। अंग्रेजी को शिक्षा और नौकरियों में अनिवार्य बनाकर उसने करोड़ों ग्रामीणगरीबपिछड़ोंदलितों,आदिवासियों और महिलाओं को संपन्नता और सम्मान से वंचित कर दिया है। गांधी के सपने को चूर-चूर कर दिया है।
मैं अंग्रेजी सीखने या इस्तेमाल करने का विरेाधी नहीं हूं। किसी भी विदेशी भाषा को सीखने का विरोध कोई मूर्ख ही कर सकता है। लेकिन देश के लोग अपनी भाषा सीखें या न सीखेंउन भाषाओं के जरिये उनको नौकरियां या काम-काज मिलें या न मिलेंपरंतु कायदा यह हो कि उन्हें अंग्रेजी सीखनी ही होगीवरना वे शिक्षित नहीं माने जाएंगे और उन्हें कोई ऊंचा काम-काज या नौकरियां नहीं मिलेंगीइसे आप क्या कहेंगेक्या यह महामूर्खता नहीं हैइस नीति का आज कोई भी दल या नेता डंके की चोट पर विरोध करता दिखाई नहीं देता। हमारे नेताओं को यह समझ ही नहीं है कि किसी आधुनिकसमृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र के निर्माण में स्वभाषा की भूमिका क्या होती है।
इस समझ के अभाव में ही आजादी के ६५ वर्षों बाद भी हमारी शिक्षानौकरशाहीराज-काजखबरपालिका,न्यायपालिका और यहां तक कि संसद में भी अंग्रेजी का बोलबाला है। अंग्रेजी के इस वर्चस्व ने देश का भयंकर नुकसान किया है। भारत के अभावअज्ञानअन्यायअसमानता और अत्याचार के कई कारणों में से एक अत्यंत खतरनाक कारण अंग्रेजी भी है। यह अत्यंत खतरनाक इसलिए है कि यह अदृश्य है। यह आतंकवादियों के बम-गोलों की तरह तहलका नहीं मचाती। यह मीठे जहर की तरह भारत की नसों में फैलती जा रही है। यदि हम अब भी सावधान नहीं हुए तो २१वीं सदी के भारत को यह खोखला किए बिना नहीं छोड़ेगी।
अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण आजाद भारत को सबसे पहला नुकसान तो यह हुआ कि वह दुनिया की अनेक महान भाषाओं जैसे फ्रांसीसीजर्मनहिस्पानीचीनीजापानीरूसीस्वाहिली आदि से कट गया। दुनिया के सारे ज्ञान-विज्ञान का ठेका अंग्रेजी को दे दिया और उसका पिछलग्गू बन गया। उसकी दुनिया सिकुड़ गई। क्या कोई सिकुड़ा हुआ पिछलग्गू देश महाशक्ति बन सकता हैअब तक जितने राष्ट्र महाशक्ति बने हैंअपनी भाषा के दरवाजे से बने हैं और उन्होंने एक नहींविदेशी भाषाओं की अनेक खिड़कियां खोल रखी हैं।
दूसरा बड़ा नुकसान अंग्रेजी ने यह किया कि उसने देश की महान भाषाओं को एक-दूसरे से दूर कर दिया। देश के स्वार्थी भद्रलोक ने उसे राष्ट्रीय संपर्क भाषा घोषित कर दिया। यह देश की बुनियादी सांस्कृतिक एकता पर गंभीर प्रहार है।
तीसरानुकसान यह कि अंग्रेजी के कारण भारत में आज तकअशिक्षा का साम्राज्य फैला हुआ है। सबसे ज्यादा बच्चे अंग्रेजी में फेल होते हैं। हर साल २२ करोड़ बच्चे प्राथमिक शालाओं में पढ़ते हैं लेकिन अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण ४० लाख से भी कम स्नातक बनते हैं। जर्मनीफ्रांसजापानइंग्लैंडईरान आदि देशों में पढ़ाई स्वभाषा में होती है इसलिए वहां शत-प्रतिशत साक्षरता है। चौथाअंग्रेजी के कारण भारत दो टुकड़ों-भारत और इंडिया- में बंटा हुआ है।
अंग्रेजीदां इंडिया का नागरिक एक हजार रु. रोज पर गुजारा कर रहा है और भारत का नागरिक सिर्फ २७ और 33 रु. रोज पर। यदि अंग्रेजी अनिवार्य न हो तो गरीब और ग्रामीण बच्चों को भी अवसरों की समानता मिलेगी।
पांचवांभारतीय लोकतंत्र इसलिए गैर-जवाबदेह बन गया है कि उसके कानूनउसकी नीतियांउसका क्रियान्वयन सब कुछ अंग्रेजी में होता है। जनता के चुने हुए सांसद और विधायक सदनों में अंग्रेजी बोलते हैं। गांधीजी ने कहा था कि आजादी के छह माह बाद भी जो ऐसा करेगाउसे मैं गिरफ्तार करवा दूंगा।
डॉ. वेद प्रताप वैदिक
छठाज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारत नकलची बना हुआ है। यहां मौलिक शोध करने की बजाय छात्र अंग्रेजी का रट्टा लगाने में अपनी ताकत नष्ट करता है। पश्चिम की नकल करके हम उन्नत जरूर हुए हैं लेकिन उनकी तरह हम भी स्वभाषा में काम करते तो शायद उनसे आगे निकल जाते। सातवांहमारी अदालतों में तीन-चार करोड़ मुकदमे बरसों से क्यों लटके हुए हैं?  मूल कारण अंग्रेजी ही है। कानून अंग्रेजी मेंबहस अंग्रेजी में और फैसला भी अंग्रेजी में। सब कुछ आम आदमी के सिर पर से निकल जाता है। यदि आज़ाद भारत अंग्रेजी के एकाधिकार को भंग करता और कई विदेशी भाषाओं को सम्मान देता तो आज हमारा व्यापार कम से कम दस गुना होता। स्वभाषाओं को उचित स्थान मिलता तो हम सचमुच आधुनिकशक्तिशालीसमृद्धसमतामूलक और सच्चे लोकतांत्रिक राष्ट्र बनते। जितना नुकसान अब तक हुआउससे कम होता।
साभार: http://www.vpvaidik.com

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

मोदीनामा

मोदी आला रे
नरेन्द्र मोदी
शुभ सुप्रभात भारत
आइए, आज ज्योतिष की भविष्यवाणी की चर्चा करते हैं। मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने से विश्व में बहुत सारे दुष्परिणाम होंगे।
१. अमेरिका की अर्थ व्यवस्था डूब जायेगी और अमेरिका बरबाद हो जाएगा क्योंकि भारत तब न तो अमेरिका से हथियार खरीदेगा और न ही उसकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सामान भारत में बिक सकेगा इसका सबसे बड़ा कारण यह होगा की मोदी जी स्वदेशी को आगे लायेंगे।
२. चीन- जो विश्व की वर्तमान में सबसे उभरती ताकत और अर्थव्यस्था है, वह भी बरबादी के मुहाने पर आ खड़ा होगा। उसका ४०% व्यापार (जो की भारत में चोरी- छिपे डंप होता है) खत्म हो जाएगा। इससे चीन को बहुत बड़ा धक्का लगेगा जिसका कारण होगा मोदी जी का भारतीय व्यापारिक तंत्र को आगे लाना यानी स्वदेसी को आगे लाना।
३. अरब देश, जो कि मरुस्थल में है वहां पर भी सूखा पड़ने की सम्भावना है क्योंकि भारत अपना आत न्यूनतम स्तर पर इन देशो से कर देगा, क्योंकि मोदी जी भारत में सौर उर्जा और प्राकृतिक गैसों के प्रयोग को प्रमुखता देने वाले है जो कि पर्यावरण हितैषी उर्जा होगी इसीलिए अरब देशी में भी कुबुलाहट शुरू हो गयी है।
४. पकिस्तान- जो कि आतंक के बलबूते पर जीता है और आतंकवाद का सबसे बड़ा उत्पादक देश है। उसकी दुकानदारी बंद हो जाएगी क्योंकि मोदी जी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद उसकी एक गलती उसको बर्बाद कर देगी और यह भी हो सकता है की भारत का मानचित्र दुबारा १९४७ से पहले वाली स्तिथि में आ जाएत।
५. कोंग्रेस के बारे में भविष्यवाणी है की वह १३७ साल की उम्र में मर जायेगी। कोंग्रेस का जन्म १८८५ में एक गोरे अंग्रेज के हाथों हुआ था, १३७ साल बाद अर्थात २०२२ में एक गोरे अंग्रेज के हाथो द्वारा ही समाप्त हो जाएगी जिसका कारण बनेगा एक सनातनी पुरुष जो कि अविवाहित होगा अर्थात नरेंद्र मोदी जी के कारण ही कोंग्रेस की अर्थी का सामन बनेगा।
यह इस बार की और भी इंगित करता है की जब किसी देश के आंतरिक मामले अन्य देशो पर प्रभाव डालते हैं तो वह देश निश्चय ही सारे विश्व को अपने प्रभाव में ले आता है। शायद मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भारत के विश्वगुरु बनने की शुरुआत हो जाए और २०२२ में राष्ट्रघाती कोंग्रेस के सम्पूर्ण नष्ट होने के बाद भारत विश्वगुरु का स्थान प्राप्त कर ले तब भारत का एक रुपैया पचास अमेरिकी डालर के बराबर होगा।
इसीलिए अमेरिका नरेंद्र मोदी जी को वीजा नहीं देता। वह नहीं चाहता की मोदी जी प्रधानमंत्री बनें, पाकिस्तान भी नहीं चाहता, कोंग्रेस भी नहीं चाहती ! इसीलिए सब विघटनकारी शक्तिया एकजुट हो रही है। यह एक महापुरुष के आगमन का संकेत है। मोदी जी प्रधानमंत्री तो भारत के बनेगे पर परिणाम सारा विश्व भुगतेगा।
मित्रो, मोदी जी के प्रधानमंत्री बनते ही भारत में ही नहीं दुनिया में कितने बड़े बदलाव होंगे यह उसकी एक झलक भर है।
माना की अंधेरा घना है, किन्तु दिया जलाना कहाँ मना है!
आशाओं के समुद्र के साथ,
शुभ सुप्रभात
सचिन खरे
।।वन्दे मातरम।।
Sachin Khare फ़ेसबुक से साभार

रविवार, 21 जुलाई 2013

चायनामा

चाय को कहें बाय 
मित्रो चाय के बारे मे सबसे पहली बात यह है कि चाय हमारे देश भारत का उत्पादन नहीं है! अंग्रेज़ जब भारत आए थे तो अपने साथ चाय का पौधा लेकर आए थे! भारत के कुछ ऐसे स्थान जो अंग्रेज़ों के लिए अनुकूल (जहां ठंड बहुत होती है) थे वहाँ उन्होंने पहाड़ियो में चाय के पोधे लगवाए और उसमे से चाय पैदा  होने लगी! अंग्रेज़ अपने साथ चाय लेकर आए भारत मे कभी चाय हुई नहीं! १७५० से पहले भारत मे कहीं भी चाय का नाम और निशान नहीं था ! ब्रिटिशर आए ईस्ट इण्डिया कंपनी लेकर तो उन्होने अपने लिए चाय के बागान लगाए! क्यूँ लगाए?
चाय एक दवा है। इस बात को ध्यान से पढ़िये, चाय एक दवा है सिर्फ उन लोगो के लिए जिनका रक्त चाप  कम रहता है। और जिनका रक्त चाप सामान्य या ज्यादा रहता है चाय उनके लिए जहर है।
अब अंग्रेज़ो की एक समस्या है वो आज भी है और हजारो साल से है! सभी अंग्रेज़ो का रक्त चाप कम रहता है। सिर्फ अंग्रेज़ो का नहीं अमरीकियों का भी, कैनेडियन लोगो का भी, फ्रेंच लोगो भी और जर्मन का भी, स्वीडिश का भी...इन सबकारक्त चाप कम रहता है।
कारण यह है कि ये लोग बहुत ठंडे इलाकोँ  मे रहते हैं। उनकी ठंड का तो हम अंदाजा नहीं लगा सकते।  अंग्रेज़ और उनके आस पास के लोग जिन इलाकोँ में  रहते है वहाँ साल के ६  से ८ महीने तो सूरज ही नहीं निकलता। और आप उनके तापमान का अनुमान लगाएंगे तो -४० तो न्यूनतम है। मतलब शून्य से भी ४० डिग्री नीचे ३०  डिग्री २० डिग्री। ये तापमान उनके वहाँ समान्य रूप से रहता है क्यों कि सूर्य निकलता ही नहीं। ६ महीने धुंध ही धुंध रहती है आसमान में। ये इन अंग्रेज़ो की सबसे बड़ी तकलीफ है!
ज्यादा ठंडे इलाके मे जो भी रहेगा उनका रक्त चाप कम हो जाएगा। आप भी करके देख सकते है। बर्फ की दो सिल्लियों को खड़ा कर बीच मे लेट जायें २  से ३ मिनट मे ही रक्त चाप कम होना शुरू हो जाएगा। ५ से ८  मिनट तक तो इतना कम हो जाएगा जिसकी आपने कभी कल्पना भी नहीं की होगी। फिर आपको शायद समझ आए ये अंग्रेज़ कैसे इतनी ठंड मे रहते है। घरो के ऊपर बर्फ, सड़क पर बर्फ, गाड़ियां बर्फ मे धंस जाती हैं। बजट का बड़ा हिस्सा सरकारें बर्फ हटाने मे प्रयोग करती है। तो वो लोग बहुत बर्फ में ररहते है ठंड बहुत है रक्त चाप कम रहता है !
अब तुरंत कम रक्त चाप को ठीक करने वाला चाहिए।  मतलब ठंड से रक्त चाप कम हो गया, एक दम रक्त चाप बढ़ाना है तो चाय उसमें सबसे अच्छी है और दूसरे नम्बर पर कॉफी। तो चाय उन सब लोगों के लिए बहुत अच्छी है जो बहुत ही अधिक ठंडे इलाके मे रहते है। अगर भारत मे कश्मीर की बात करें तो उन लोगों के लिए चाय, काफी अच्छी क्यों कि ठंड बहुत ही अधिक है।
लेकिन बाकी भारत के इलाके जहां तापमान सामान्य रहता है ! और मुश्किल से साल के १५ से २० दिन की ठंड है। वह भी तब जब कोहरा बहुत पड़ता है हाथ पैर कांपने लगते है तापमान ० से १ डिग्री के आस पास होता है ! तब आपके यहाँ कुछ दिन ऐसे आते है जब आप चाय पिलो या काफी पिलो !
लेकिन पूरे साल चाय पीना और 'हर समय चाय का समय' को मानना बहुत खतरनाक है। कुछ लोग तो कहते हैं कि बिना चाय यानी बैड टी पिए तो सुबह शौच भी नहीं जा सकते। यह तो बहुत ही अधिक खतरनाक है। इसलिए उठते ही अगर चाय पीने की आपकी आदत है तो इसको बदलिए। 
नहीं तो होने वाला क्या है सुनिए- अगर आपका  रक्त चाप सामान्य है और आप ऐसे ही चाय पीने की आदत जारी रखते हैं  तो धीरे-धीरे रक्तचाप ऊपर बढ़ना होना शुरू होगा। और यह उच्च रक्त चाप फिर आपको नियमित गोलियों  तक लेकर जाएगा। तो डाक्टर कहेगा रक्त चाप कम या सामान्य करने के लिए गोलियां खाओ और ज़िंदगी भर चाय पियो जिंदगी भर गोलिया भी खाओ।  डाक्टर ये नहीं कहेगा चाय छोड़ दो वो कहेगा जिंदगी भर गोलियां  खाओ क्योंकि गोलिया बिकेंगी तो उसको भी कमीशन मिलता रहेगा। 
तो आप अब निर्णय लेलों जिंदगी भर रक्त चाप  की गोलियाँ खाकर जिंदा रहना है तो चाय पीते रहो और अगर नहीं खानी है तो चाय पहले छोड़ दो।
एक जानकारी और- आप जानते है गर्म देश मे रहने वाले लोगों का पेट पहले से ही अम्लीय होता और ठंडे देश मे रहने वाले लोगो का पेट पहले से ही क्षारीय (alkaline) होता है। गर्म देश मे रहने वाले लोगो का पेट सामान्य अम्लीयता (normal acidity) से ऊपर होता है और ठंड वाले लोगो का सामान्य क्षारीयता  (normal acidity) से भी बहुत अधिक कम। मतलब उनके रक्त की अम्लीयता हम मापें और अपने देश के लोगों की मापे तो दोनों मे काफी अंतर मिलेगा। अगर आप ph स्केल को जानते है तो हमारे रक्त की अम्लीयता ७ .४, ७.३, ७.२ और कभी कभी  ६.८ के आस पास तक चली जाती है। लेकिन यूरोप और अमेरिका के लोगों का ph +८ और +८ से भी आगे तक रहता है !
तो चाय पहले से ही अम्लीय है और उनके क्षारीय रक्त को थोड़ा अम्लीय करने मे चाय कुछ मदद करती है। लेकिन हम लोगों का रक्त पहले से ही अम्लीय है और पेट भी अम्लीय है, ऊपर से हम चाय पी रहे हैं  तो शरीर का सर्वनाश कर रहे हैं। चाय हमारे रक्त में अम्लीयता को और ज्यादा बढ़ाती जाती है।
आयुर्वेद के अनुसार रक्त में जब अम्लता बढ़ती है तो ४८ रोग शरीर मे उतपन होते है। उसमे से सबसे पहला रोग है कोलेस्ट्रोल का बढ़ना। कोलेस्ट्रोल को आम आदमी की भाषा मे बोले तो मतलब रक्त मे कचरा बढ़ना। और जैसे ही रक्त मे ये कचरा बढ़ता है तो हमारा रक्त दिल के वाहिका (नलियों ) में  से निकलता हुआ रुकावट पैदा करना करना शुरू कर देता है ! और फिर यह रुकावट धीरे-
धीरे इतनी बढ़ जाती है कि पूरी वाहिका (नली ) भर जाती है और मनुष्य को हृदयाघात या दिल का दौरा होता है। सोचिए यह चाय आपको धीरे-धीरे कहाँ तक लेकर जा सकती है। इसलिए कृपया इसे तुरंत छोड़ दें। 
अब आपने इतनी अम्लीय चाय पी पीकर जो आज तक पेट बहुत ज्यादा अम्लीय कर लिया है ! इसकी अम्लता को फिर कम करिए। कम कैसे करेंगे?
सीधी सी बात पेट अम्लीय है तो क्षारीय चीजें अधिक खाओ। क्योंकि अम्ल और क्षार दोनों को  मिला दो तो प्राकृतिक या सामान्य हो जाएगा। क्षारीय चीजों मे आप जीरे का पानी पी सकते है पानी में  जीरा डालें  बहुत अधिक गर्म करें थोड़ा ठंडा होने पर पिएं। दालचीनी को ऐसे ही पानी में डाल कर गर्म करें 

ठंडा कर पिएं। एक और बहुत अधिक क्षारीय चीज आती है वह है अर्जुन की छाल जिसका काढ़ा ४०-४५  रुपए किलो कहीं भी मिल जाता है इसको आप गर्म दूध में डाल कर पी सकते है। यह बहुत जल्दी ह्रदय की रुकावट, उच्च रक्तचाप, कोलेस्ट्रोल आदि को ठीक करता है !!
एक और बात पर आप ध्यान दें इंसान को छोड़ कर कोई जानवर चाय नहीं पीता। कुत्ते को पिला कर देखो कभी नहीं पिएगा। सूंघ कर इधर-उधर हो जाएगा। दूध पिलाओ, एक दम पियेगा। कुत्ता, बिल्ली, गाय, चिड़िया जिस मर्जी जानवर को पिला कर देखो कभी नहीं पिएगा।
और एक बात आपके शरीर के अनुकूल जो चीजें है वो आपके २० किलो मीटर के दायरे मे ही होंगी। आपके गर्म इलाके से सैंकड़ों मील दूर ठंडी पहांड़ियों मे होने वाली चाय या काफी आपके लिए अनुकूल नहीं है। वह  उनही लोगों के लिए है। आजकल ट्रांसपोर्टेशन इतना बढ़ गया है कि हमें हर चीज आसानी से मिल जाती है।  वरना शरीर के अनुकूल चीजें प्रत्येक इलाके के आस पास ही पैदा हो पाएँगी। आप चाय छोड़े अपने अम्लीय पेट और रक्त को क्षारीय चीजों का अधिक से अधिक सेवन कर अपने शरीर को स्वस्थ रखें। 
 
साभार: स्वदेशी अपनाओ देश बचाओ
यहाँ click करें- https://www.youtube.com/watch?v=XSQyc_PnJy4

शब्द शक्ति

हमारी विस्मयकारी शब्द शक्ति
• डॉ. मधुसूदन
 गीतकार होना चाहते हो
 प्रचण्ड शब्द शक्ति का स्रोत।
 प्रास रचना में भी सहायक ।
१. संस्कृत गीत रचना
आपने, पूजनीय, आदरणीय,  माननीय, पठनीय, वाचनीय, निन्दनीय, वंदनीय, अभिनन्दनीय, दर्शनीय, श्रवणीय इत्यादि, शब्द प्रयोग सुने होंगे। ऐसे प्रायः २५० शब्द तो सरलता से भाषा में, मिल ही जाएंगे। इन सारे शब्दों के अर्थ भी जुडे हुए हैं।  जो आपने अनेक बार पढ़े होंगे, जाने होंगे।
उदाहरण: वंदनीय= वंदन करने योग्य, या जिसका वंदन करना चाहिए;
पठनीय= पठन करने योग्य, या जिसका पठन करना चाहिए; ऐसे ही अर्थ होते हैं। अब नीचे दिया हुआ, एक छोटासा संस्कृत गीत देखिए।
यह गीत स्मरणीय, वन्दनीय, करणीय, रमणीय, शयनीय, जागरणीय, गणनीय, मननीय, त्वरणीय, तरणीय, चरणीय, भ्रमणीय, संचरणीय़ ऐसे शब्दों के प्रास (तुकान्त) पर रचा गया है।
गीत सरल संस्कृत में ही लिखा गया है। इस गीत की रचना, स्व. पद्मश्री डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर जी ने, वनवासी क्षेत्रों में लगे शिविर के लिए की थी। विवेकानन्द शिला स्मारक स्थापक, श्री. एकनाथ जी रानडे के अनुरोध पर, ऐसे  १६४ सरल संस्कृत गीतों की पुस्तक 'तीर्थ भारतम्' प्रकाशित की गयी थी।
उन्हीं गीतों में से, एक गीत प्रस्तुत है। पढिए न्यूनतम संस्कृत जानकारी से भी इसका अर्थ समझमें आ जाएगा।
. लोकहितं मम करणीयम्
मनसा सततं स्मरणीयम्  । वचसा सततं वदनीयम्
लोकहितं मम करणीय़म्  ॥ध्रु॥
{ मनसा=मनसे , सततं= सदा, वचसा= वाचासे या वाणीसे, वदनीयम् = बोलना चाहिए } न भोगभवने रमणीयम् । न च सुखशयने शयनीयम्।
अहर्निशं जागरणीयम् ।  लोकहितं मम करणीय़म्।॥१॥
{ भोगभवने =भोग महलमें, सुखशयने = सुखदायी शय्या पे, अहर्निशं=दिन रात } न जातु दुःखं गणनीयम्  । न च निजसौख्यं मननीयम्।
कार्यक्षेत्रे त्वरणीयम् । लोकहितं मम करणीय़म्॥२॥
{जातु = पैदा होता, निजसौख्यं= अपना सुख, त्वरणीयम् = शीघ्रता करनी है} दुःखसागरे तरणीयम् ।  कष्टपर्वते चरणीयम्।
विपत्तिविपिने भ्रमणीयम् ।लोकहितं मम करणीय़म् ॥३॥
{ विपत्तिविपिने= संकटों के वन में, गह्वरे= गुफाओमें } गहनारण्ये घनान्धकारे। बन्धु जना ये स्थिता गह्वरे।
तत्र मया संचरणीयम् । लोकहितं मम करणीय़म्॥४॥
{गहनारण्ये= घने जंगल में, घनान्धकारे= घने अंधेरे में, मया=मेरे द्वारा}
. इसी प्रत्यय के कुछ और उदाहरण
करणीय (करने योग्य), स्मरणीय, पूजनीय,  पठनीय, वाचनीय, प्रार्थनीय,गणनीय, तोलनीय, निन्दनीय, प्रशंसनीय, श्रवणीय, दर्शनीय, कम्पनीय, प्रकाशनीय, आदरणीय, दण्डनीय,चिंतनीय, कमनीय,त्यजनीय, भूषणीय, भ्रमणीय,  शोभनीय, वरणीय, गमनीय, भरणीय,  अटनीय, अर्चनीय, अर्थनीय,  भवनीय, आसनीय, अध्ययनीय, निरीक्षणीय, कथनीय,  कोपनीय, कल्पनीय, सेवनीय, क्रीडनीय, क्रोधनीय,  क्षमणीय़, क्षयणीय, खेलनीय, गर्जनीय, गोपनीय, गानीय, ग्रहणीय, घटनीय, चलनीय, जननीय, जपनीय, जागरणीय, ज्ञानीय, तपनीय, तरणीय,  दलनीय, दहनीय, दानीय, दीपनीय, धानीय, ध्यानीय, नमनीय, नर्तनीय, पचनीय, पानीय, पोषणीय, वचनीय, भाषणीय, भोजनीय, भ्रमणीय़ इत्यादि, और भी बहुत शब्द बन सकते हैं।
४ . गीत या कविता में उपयोग।
विशेष इन सारे शब्दों का अंत -नीय या -णीय में होने से उनका प्रयोग कर गीत या कविता करना भी सरल ही होता है। ऐसे और भी प्रत्ययों वाले शब्द हैं। अभी तो ८० प्रत्ययोंमें से एक ही प्रत्यय का उदाहरण दिया है। लीजिए- नन्दन, मिलन, चलन, पूजन, अर्चन इत्यादि का दूसरा उदाहरण।और लीजिए- याचक, नायक, लेखक, सेवक, दर्शक इत्यादि तीसरा उदाहरण।लीजिए और एक- हर्ता, कर्ता, वक्ता, दाता, ज्ञाता, भोक्ता इत्यादि चौथा उदाहरण।और लीजिए – मानिनी, मालिनी, दामिनी, कामिनी, कुमुदिनी, नलिनी  ऐसा पाँचवा उदाहरण।ऐसे बहुत सारे प्रायः ८० तक उदाहरण दिए जा सकते हैं। यह सारी उपलब्धि देववाणी संस्कृत के कारण है। लेखक ने, हिंदी, गुजराती, और मराठी में कविता लिखने में सरलता अनुभव की है।
५. संस्कृत शब्द थोक में
विश्वास नहीं होगा, पर कुछ पंक्तियाँ पढने पर आप भी समझ जाएंगे, कि, संस्कृत (अतः हिंदी भी) शब्द थोक में आकलन हो जाते हैं, जब अंग्रेज़ी के शब्द एक एक कर  सीखे जाते हैं। क्यों कि अंग्रेज़ी के शब्द अन्य भाषाओं से उधार लिए गए हैं। इसलिए सामान्यतः आपस में जुडे हुए नहीं होते। कुछ अंश होता भी है, तो हमारे लिए लातिनी, और युनानी भी पराई भाषाएँ होने से हमें कोई लाभ नहीं। इसे एक सिद्धान्त के रूप में कहा जा सकता है।
सिद्धान्त: संस्कृतजन्य (हिंदी) शब्द थोक में आकलन हो जाते हैं।
इस सत्य को समझने में, यदि साधारण पाठक कठिनाई अनुभव करता है; तो उसका कारण संस्कृत की हमारी उपेक्षा और ढूलमूल भाषा नीति-रीति उत्तरदायी है। शायद हमारे सम्मान्य समाज का अज्ञान भी उत्तरदायी है, शिक्षा उत्तरदायी है, शासन भी उत्तरदायी है। दास्यता के भ्रम में डूबे शिक्षित समाज ने भी अपना दायित्व नहीं निर्वाह किया, जानकारों का कर्तव्य था, इस ओर ध्यान आकर्षित करने का।पर वे मैकाले के ही, समर्थक हो कर रह गए।
६. संस्कृत शब्द-गुच्छ
आप जितना समय अंग्रेज़ी एक नया शब्द सीखने में लगा देते हैं, उतने समय में आप संस्कृत के अनेक शब्द अर्थसहित सीख सकते हैं। क्यों कि, संस्कृत के शब्द एक गुच्छे में होते हैं। उसके एक शब्द को समझते ही गुच्छेके अन्य शब्द भी सरलता से समझने में सहायता करते हैं। कुछ संस्कृत के उपसर्ग, प्रत्यय, और धातुओं का ज्ञान होने पर और सरलता अनुभव होती है।
बहुत से शब्दों का अर्थ भी आप हिंदी में प्रयोगों के कारण, जानते ही होंगे, हिन्दी में भी इनका प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता है। ऐसे शब्दों से आपकी भाषा भी मंजी हुयी बन कर मोहक हो जाती है।
संस्कृत व्याकरण को बाहर रखकर भी आप इन शब्दों का अंतवाला अंश “अनीय” या “अणीय” जान गए होंगे।
यह शब्द रचना की प्रचण्डता दिखाने के लिए लिखा गया आलेख है।
संस्कृत व्याकरण का  उपयोग करते हुए, नया शब्द कैसे रचा जा सकता है, यह उदाहरणों से पता चलता है। नियम नहीं समझाए हैं। पर, ऐसे शब्दों के उदाहरण मात्र दिए गए हैं।आलेख का उद्देश्य हमारी प्रचण्ड शब्द रचना शक्ति की झलक मात्र दिखाना भी है। संस्कृत व्याकरण ऐसे आलेख में समझाया नहीं जा सकता, न उसकी पर्याप्त जानकारी इस लेखक को है।
संस्कृत व्याकरण के अपवाद रहित, और दोष रहित नियम जाने बिना, नया शब्द रचना उचित नहीं है। वैसे हिन्दी में संस्कृत व्याकरण की दृष्टिसे कुछ अशुद्ध शब्द देखे जाते हैं। पर वे प्रचलित हो चुके हैं। कुछ हिंदी के हितैषी भी हिंदी को संस्कृत के द्वेष पर आगे बढाकर, विकृत कर रहें हैं। फिर कहते हैं, भाषा है बहती नदी।
 डॉ. मधुसूदन
किसी को भी इस बह्ती नदी को प्रदूषित करने का अधिकार नहीं है। परिमार्जित कर ऊंचा उठाने का है, वैसी नदी  अवश्य मान्य है। बदलाव विकृति की ओर न हो, संस्कृति की ओर, उन्नति की ओर स्वीकार्य हैं।
वैसे हिन्दी को संस्कृत के इस सर्व प्रदेश-स्पर्शी गुण पर आरूढ करने से सर्व-स्वीकृति कराने में न्यूनतम कठिनाई अपेक्षित है। संस्कृत के कुछ ही अध्ययन से ही आप अपना शब्द भण्डार भी बढ़ाकर समृद्ध कर सकते हैं। यही सूत्र  बचपन में सीखा था। और एक साथ तीन भाषाओं में मुझे लाभ प्रतीत हुआ था।
विषय बहुत गहरा है। यह केवल एक झलक देने का ही प्रयास है।
साभार: प्रवक्ता

शनिवार, 20 जुलाई 2013

भारतीय भाषाओं में कार्यवाही की मांग को लेकर 
सत्‍याग्रह कर रहे पाठक गिरफ्तार
१७ जुलाई को  6 बजे श्री श्‍याम रुद्र पाठक को १०७/१०५ धारा लगाकर जबरन गिरफ्तार कर लिया। यह दुर्भाग्‍यपूर्ण और निंदनीय कार्य है। श्री पाठक २२५ दिन से लगातार यूपीए की चेयरपर्सन श्रीमती सोनिया गांधी के निवास के आगे सत्‍याग्रह कर रहे थे। उनकी मांग है कि सर्वोच्‍च न्‍यायालय एवं देश के १७ उच्‍च न्‍यायालयों में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्‍म हो और भारतीय भाषा में भी बहस हो। श्री श्‍याम रुद्र पाठक अभी तुगलक थाना में गिरफ्तार हैं। पुलिस ने उनका एटीएम, मोबाइल सहित सारा सामान छीन लिया है।
आइए और भारत को बचाइए। यहां की संस्‍कार, संस्‍कृति, भाषा आदि सब पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। हम बातचीत में, लेखों में इस पतनशीलता और पराधीनता पर खूब रोना रोते हैं। आज यदि कोई स्‍वभाषा और स्‍वदेश के लिए अपना जीवन दांव पर लगाकर संघर्षरत है तो हमें कम से कम उनके साथ खड़े तो होना चाहिए, उनकी आवाज को बुलंद तो करना चाहिए।
श्याम रूद्र पाठक पहली ऐसी शख्सियत हैं, जिन्होंने आईआईटी दिल्ली में रहते हुए अपनी प्रोजेक्ट रिपोर्ट हिंदी में लिखी और पेश की थी। इसके लिए उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई भी लड़नी पड़ी थी। हिंदी और भारतीय भाषाओं में न्यायालय की कार्यवाही की उनकी मांग के समर्थन में आए दिन हिंदी सेवी और बुद्धिजीवी भी धरने पर बैठते रहे हैं।
फेसबुक 
भारतीय भाषाओं के पक्ष में अकेला अभियान 
श्याम रूद्र पाठक 

मुल्ला नसीरुद्दीन की बोलने वाली बकरी की कथा सर्वव्यापी है। बाजार में सबसे मंहगी बकरी बिक रही थी। राजा पहुँच गया विशेषतायें जानने। मुल्ला ने कहा कि बोलती है मेरी बकरी हुजूर और वह भी आदमी की भाषा में। बुलवाया गया बकरी से। मुल्ला ने सवाल किया कि बता यहाँ बकरी कौन? उत्तर मिला “मैं…” अगला सवाल कि बता दूध यहाँ कौन देता है तो फिर वही उत्तर “मैं….”। असल में यह बोली भाषा का झगडा सुलझता ही नहीं चूंकि सवाल भी सुविधा वाले हैं और जवाब भी तय से हैं। यहाँ गधा कौन? तो इसका उत्तर भी यही आता “मैं….” लेकिन भाषा का खेल चतुराई से खेला गया है इस लिये इस बकरी को लाखों की कीमत मे बेचा जाना तय है। भारतीय भाषाओं के साथ भी यही दिक्कत है। इसकी नियती तय कर दी गयी है, इसके सवाल तय हैं कि विज्ञान की अच्छी किताबें कहाँ उपलब्ध नहीं हो सकतीं? उत्तर है “भारतीय भाषाओं में”; कार्यालय में किस भाषा में काम करने में व्यवहारिक अडचन है? उत्तर है “भारतीय भाषाओं में”; किस भाषा में न्याय पाना संभव नहीं है? उत्तर है भारतीय भाषाओं में। पिछले कई दिनों से एक समाचार रह रह कर ध्यान खींच रहा था। श्याम रुद्र पाठक नाम का एक व्यक्ति अकेला ही एकसूत्रीय अभियान को ले कर लम्बे समय से धरने पर बैठा हुआ था। मांग भी अजीब सी थी कि “उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय की कार्यवाही भारतीय भाषाओं में होनी चाहिये”। इस व्यक्ति की बात अधिक गंभारता से समझने की इच्छा हुई। उनका ही एक आलेख मुझे प्रवक्ता वेब पत्रिका पर पढने को मिला और कुछ मोटे मोटे तर्क मैं समझ सका। उदाहरण के लिये “संविधान के अनुच्छेद ३४८ के खंड (१) के उपखंड (क) के तहत उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी भाषा में होंगी। यद्यपि इसी अनुच्छेद के खंड(२) के तहत किसी राज्य का राज्यपाल उस राज्य के उच्च न्यायालयों में हिंदी भाषा या उस राज्य की राजभाषा का प्रयोग राष्ट्रपति की पूर्व सहमति के पश्चात् प्राधिकृत कर सकेगा”। इस बात का सीधा सा अर्थ निकलता है कि भारतीय भाषाओं को न्याय की भाषा के रूप में हक दिलाने का रास्ता वस्तुत” संविधान संशोधन के रास्ते से ही निकलता है। इस संदर्भ पर पाठक अपने लेख में आगे अपनी मांग को स्पष्ट करते हैं कि “संविधान के अनुच्छेद ३४८ के खंड (1) में संशोधन के द्वारा यह प्रावधान किया जाना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय और प्रत्येक उच्च न्यायालय में सभी कार्यवाहियां अंग्रेजी अथवा कम-से-कम किसी एक भारतीय भाषा में होंगी। इसके तहत मद्रास उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम तमिल, कर्नाटक उच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम कन्नड़, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड और झारखंड के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी और इसी तरह अन्य प्रांतों के उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम उस प्रान्त की राजभाषा को प्राधिकृत किया जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय में अंग्रेजी के अलावा कम-से-कम हिंदी को प्राधिकृत किया जाना चाहिए”। इस मांग को जिस प्रमुख तर्क के साथ सामने रखा गया है वह है कि “किसी भी नागरिक का यह अधिकार है कि अपने मुकदमे के बारे में वह न्यायालय में बोल सके, चाहे वह वकील रखे या न रखे। परन्तु अनुच्छेद ३४८ की इस व्यवस्था के तहत देश के चार उच्च न्यायालयों को छोड़कर शेष सत्रह उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय में यह अधिकार देश के उन सन्तानवे प्रतिशत (९७%) जनता से प्रकारान्तर से छीन लिया है जो अंग्रेजी बोलने में सक्षम नहीं हैं”। मांग सर्वधा उचित है तथा इस दिशा में नीति-निर्धारकों का ध्यान खींचा जाना आवश्यक है। भारत विविधताओं का देश है। हमें विविधता को मान्यता देनी ही होगी और इसी में हमारी एकता सन्निहित है। लाखों रुपये की फीस खसोंट कर पूंजीपती होते जा रहे वकीलों के लिये भाषा की यह पाबंदी एक सुविधा है। एक आम आदमी अपनी भाषा में अपने उपर घटे अपराध अथवा आरोप की बेहतर पैरवी कर सकता है अथवा माननीय अदालतों में हो रही उस जिरह को समझ सकता है जो अंतत: उसकी ही नियति का फैसला करने जा रही हैं। न्याय को तो आम जन की समझ तक पहुँचना ही चाहिये। व्यवस्था पर उंगली उठाने में हम लोग अग्रणी पंक्ति में खडे रहते हैं लेकिन अपने लोकतंत्र के संवर्धन के लिये हमारे पास न तो कोई योजना है न ही सोच। लोकतंत्र देखते देख बूढा हो गया और हम कहाँ से कहाँ पहुँच गये? शिक्षा, न्याय और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी अधिकारों से हमारी अवांछित दूरी इस भाषा ने ही बना दी है। ये तीनों ही अधिकार अब आम आदमी की पकड और उसके जेब से बाहर की बात हो गये हैं। चलिये हम झंडा नहीं पकड सकते लेकिन इन आवश्यक विषयों पर समर्थन तो व्यक्त कर ही सकते हैं? श्री श्याम रुद्र पाठक को उनके साहस और भारतीय भाषा के अधिकारों की इस लडाई के लिये हार्दिक साधुवाद। कल उन्हें सत्याग्रह करने के अपराध में दिल्ली पुलिस नें धारा १०७/१०५ के तहत गिरफ्तार कर लिया है। कहते हैं कि नदी का रास्ता कोई नहीं रोक सकता अत: श्री पाठक की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए अपने आलेख के उपसंहार में इतना ही कहना चाहता हूँ कि भारतीय भाषाओं के हक की यह लडाई किसी अकेले व्यक्ति की नहीं है। इस मशाल की लपट को फैलना ही होगा। राजीव रंजन प्रसाद
प्रवक्ता 

सहयात्रा में पढ़िए